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________________ णिहि, हाणु, णिहालहि, ये पांच शब्द ही अब तक मेरे दृष्टिगोचर हुए हैं। इस सम्बन्ध में डा० वैद्य ने अपने त्रिविक्रम कृत 'प्राकृत शब्दानुशासन' (जीव० जैन ग्रंथ० शोलापुर सन् १९५४ ई.) की प्रस्तावना में अपना यह अभिमत व्यक्त किया है कि 'न' को 'ण' में परिवर्तित करने के विषय पर प्राकृत वैयाकरणों में मतभेद है। और इसका परिणाम यह हुआ है कि अपभ्रंश की हस्तलिखित प्रतियों में तथा आधुनिक संस्करणों में बड़ी अनियमितता पा गयी है । प्रतएव नियमितता लाने के हेतु उन्होंने यह सुझाव दिया है कि यदि सम्पादनीय प्राकृत रचना जैन परम्परा की है तो शब्द के प्रादि का 'न' यदि वह उसके मूल संस्कृत रूप में है तो उसे सुरक्षित रखा जाय, तथा मध्यवर्ती 'न' को 'ण' में परिवर्तित किया जाय। णं (ननु) जैसे एकाक्षर शब्द देशी समझे जावें । किन्तु नूनं के स्थान पर मूणं रखा जावे। तथापि जैनेतर प्राकृत रचनाओं में सर्वत्र 'न' के स्थान पर 'ण' का आदेश किया जावे। ____ डा०प० ल० वैध ने जो प्राकृत वैयाकरणों के मतभेदों के कारण उपर्युक्त अनिश्चित स्थिति उत्पन्न हुई, ऐसा कहा है, वह इस प्रकार है-भरत ने अपने नाट्यशास्त्र में प्राकृत भाषा की विशेषताओं का भी उल्लेख किया है। वहां उन्होंने कहा है-'सर्वत्र च प्रयोगे भवति नकारो ऽपि च णकारः' (भ० ना० शा० १८-१२) । इसी प्रकार वररुचि कृत 'प्राकृत-प्रकाश' में सूत्र पाया जाता है-'नो णः सर्वत्र' (प्रा० प्र० २-४२), जिसकी भामह कृत टीका है 'प्रादेरिति निवृत्तम् । सर्वत्र नकारस्म णकारो भवति । णई, कण, वश्रणं, माणुसो। इस प्रकार उक्त दोनों प्राचार्यों के मत से प्राकृत में शब्द के प्रावि, मध्य एवं द्वित्व इन सभी स्थितियों में 'न' के स्थान पर 'ण' का प्रावेश अनिवार्य है। - इसके विपरीत हेमचन्द्र कृत प्राकृत-व्याकरण के सूत्र हैं नो णः । वादी (८.१.२२८-२९) । और इन सूत्रों पर उनकी स्वोपक्ष टीका है-स्वरात् परस्यासंयुक्तस्यानादेर्नस्य णो भवति-कणयं, मयणों वयणं मयणं माणइ । पार्षे प्रारनालं, अनिलो, अनलो इत्याद्यपि । प्रसंयुक्तस्यादौ वर्तमानस्य नस्य णो वा भवति, णरो-नरो; गई-नई; णेइ-नेइ । असंयुक्तस्येत्येव न्यायः-नायो । इसी प्रकार त्रिविक्रम कृत प्राकृत शम्दानुशासन का सूत्र है नः । प्रादेस्तु (१.३.५२-५३) । इसको टीका है-प्रस्तोरखोरचः परस्य नकारस्य णकारो भवति । कनकं-कणनं । धन-धणं । माणइ मानयति । न इत्यनुवर्तते । शब्दानामादेनकारस्प णत्वं भवति तु । नदी-गई-नई। मयति-णेइ-नेइ ॥ प्रस्तोरित्येव । न्यायः-नायो। (प्रस्तोः=असंयुक्तस्य; प्रखोः=अनादेः)। उक्त सभी प्राकृत धेयाकरणों से सम्भवतः पूर्ववर्ती चण्ड ने अपने प्राकृत-लक्षण में केवल इतना कहा है-तवर्गस्य च-टवर्गी (१६) यथा नित्यं-निच्चं; नृत्यं-नट्टं; धान्यं-घाणं । इस प्रकार हमारे सन्मुख वैयाकरणों के प्रमुखता से दो मत उपस्थित होते हैं । एक तो यह कि प्राकृत में सर्वत्र ही 'न' के स्थान पर 'ण' प्रादेश अनिवार्यतः किया जाना चाहिये । और दूसरा यह कि जब शब्द में 'न' दो स्वरों के बीच में प्रावे तभी उसके स्थान पर 'ण' का आवेश किया जावे, अन्यथा अर्थात् शब्द के प्रादि में तथा संयुक्त वर्ण में 'न' को अपरिवर्तित रखा जावे । इस सम्बन्ध में हेमचन्द्र का एक और मत ध्यान देने योग्य है । उन्होंने अपने 'देशीनाममाला' नामक कोश में कहा है-नकारादयस्तु देश्यामसम्भविन एवेति न निबद्धाः । यच्च "वादो" इति सूत्रितमस्माभिः तत्संस्कृतभवप्राकृतशब्दापेक्षया न वेश्यपेक्षयेति सर्वमवदातम् । इसका तात्पर्य यह है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001367
Book TitleKahakosu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechandmuni
PublisherPrakrit Text Society Ahmedabad
Publication Year1969
Total Pages675
LanguageApbhramsa, Prakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size10 MB
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