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________________ और भीनमाल पर अपना अधिकार जमा लिया जो उनके उत्तराधिकारी कणं तक स्थिर रहा प्रतीत होता है। दसणकहरयणकरंड में हमें एक और महत्वपूर्ण संकेत प्राप्त होता है । इस ग्रंथ की कथाकोश के समान संध्यन्त को पद्यात्मक पुष्पिकाओं में कर्ता का निर्देश पंडित श्रीचन्द्रकृत (पंडिय-सिरिचंदकए) रूप से किया गया है। किन्तु यह क्रम सोलहवी संधि तक ही पाया जाता है । सत्तरहवीं से बाईसवीं सन्धि तक की पुष्पिकाओं में "इय सिरिचंद-मुणिंदकए" (श्रीचन्द्रमुनिकृत) ऐसा निर्देश हुमा है। प्रशस्ति में भी कर्ता का निर्देश पंडित या बुध उपाधि सहित ही किया गया है । मुनि उपाधि सहित नहीं। सिरिचंदणामु सोहणमणीसु । संजायउ पंडिउ पढमसीसु ॥ यथा बुहसिरिचंदें एउ किउ। गंदउ कव्वु जयम्मि॥ जान पड़ता हैं कि वर्शनकथारत्नकरंड की १६ हवीं सन्धि की रचना तक श्रीचन्द्र जी श्रावक (गृहस्थ या क्षुल्लक) ही थे। तत्पश्चात् उन्होंने मुनि-दीक्षा ग्रहण की । कथाकोश में प्रादि से ही कर्ता के साथ मुनि उपाधि का प्रयोग पाया जाता है। चितइ मणि मुणिसिरिचन्दु कई। पुष्पिकानों में भी प्रादि से अन्त तक मुनि शब्द पाया है, और प्रशस्ति में तो उन्हें 'सूरि' भी कहा गया है। प्रतएव निश्वयतः कथाकोश की रचना दर्शन-कथा-रत्नकरण्ड की रचना के पश्चात् सन् १०७० के लगभग हुई होगी। कथाकोशकार के प्राश्रय-दाता कथाकोश को ग्रंथकार-प्रशस्ति का एक और संकेत ध्यान देने योग्य है। जिन प्राग्वाट वंशी सज्जन के उल्लेख से वह प्रशस्ति प्रारम्भ हुई है, उनके पुत्र कृष्ण को 'निद्रान्वयमहामुक्तामालायां नायकोपमः' अर्थात् निद्रावंश के महापुरुषों रूपी मोतियों की माला के प्रमुख रत्न कहा गया है। यहां निद्रान्वय पाठ की शुद्धि में सन्देह उत्पन्न होना स्वाभाविक था, क्योंकि निद्रा वंश कभी देखने सुनने में नहीं आया था । अतएव मैने प्राग्वाट वंश सम्बन्धी प्राचीन उल्लेखों को देखना प्रारम्भ किया। इस खोज में मेरा ध्यान सर्वप्रथम राजशेखर कृत प्रबन्ध-कोष के वस्तुपाल-प्रबन्ध की ओर गया जहां उनके वंश को 'श्रीमत्पत्तनवास्तव्यप्राग्वाटान्वय' कहा गया है। वस्तुपाल तेजपाल के प्रसंग से जब उनके बनवाये माबू के मन्दिरों के शिलालेखों मादि की ओर ध्यान गया तो ज्ञात हुमा कि प्राबू के विमलवसही नामक मंदिर में जो हस्तिशाला है उसमें हाथियों की मूर्तियों पर विमलशाह के पूर्वज सवार हुए दिखाये गये हैं और उनके नाम भी वहां अंकित हैं। इनमें विमलशाह के सर्वप्रथम पूर्वज महामंत्री नीना कहे गये हैं। उनके पश्चात् क्रमशः म० मं० लहर, वीर, नेढ़, धवल प्रादि दश नाम पाये जाते हैं, जिनमें प्रथम सात महामंत्री पृथ्वीपाल द्वारा वि० स० १२०४ में तथा शेष तीन महामंत्री धनपाल द्वारा वि० सं० १२७७ में प्रतिष्ठित सिद्ध होते हैं। मन्दिर की क्रमांक १० वी० कुलिका में एक शिलापट्ट है, जिस पर भी पाठ श्रावकों के चित्र खुदे हुए हैं और प्रत्येक के नीचे क्रमश: महामं० श्री नीनामूर्तिः, महामं० श्रीलहरमूर्तिः महामं० श्री वीरमूर्तिः, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001367
Book TitleKahakosu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechandmuni
PublisherPrakrit Text Society Ahmedabad
Publication Year1969
Total Pages675
LanguageApbhramsa, Prakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size10 MB
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