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कथाकोश का रचना-काल इस रचना के काल की कोई स्पस्ट सूचना ग्रंथ में नहीं पायी जाती । किन्तु ग्रंथ की प्रादर्भ प्रति में उसका लेखन-काल संवत् १७८३ निर्दिष्ट है। यह ग्रंथ-रचना की उत्तर सीमा मानना चाहिये । पूर्व सीमा के लिये प्रशस्ति का यह उल्लेख महत्वपूर्ण है कि जिन महाश्रावक कृष्ण की सन्तान ने कथाकोश का व्याख्यान कराया था, उनके पिता सज्जन मूलराज नरेश के धर्मस्थान के गोष्ठीकार थे। ये मूलराज निश्चयतः वे ही नरेश हैं जिन्होंने गुजरात में वनराज द्वारा स्थापित चावड़ा वंश को च्युत करके सन् ९४१ में सोलंकी (चालुक्य) वंश की स्थापना की थी। प्रशस्ति में यह भी उल्लेख है कि ग्रंथकार के परदादा गुरु श्रुतकीति के चरणों की पूजा गार्गेय, भोजदेव प्रादि बड़े बड़े राजात्रों ने की थी। गांगेय निश्चयतः डाहल (जबलपुर के प्रासपास का प्रदेश) के वे ही कलचुरि नरेश गांगेयदेव होना चाहिये जो कोकल्ल (द्वि०) के पश्चात् सन् १०१९ के लगभग सिंहासनारूढ़ होकर सन् १०३८ के लगभग तक राज्य करते रहे । भोजदेव धारा के वे ही परमार वंशी राजा हैं जिन्होंने सन् १००० से १०५५ ई० तक मालवा का राज्य किया तथा जिनका गुजरात के सोलंकी राजाओं से अनेक बार संघर्ष हुआ। इन राजाओं के उल्लेख से स्पष्ट है कि श्रीचन्द्र का रचनाकाल सन् १०५५ के अनेक वर्षों पश्चात् होना चाहिये।
ग्रंथरचना काल के सम्बन्ध में इससे अधिक प्रकाश इसी कवि श्रीचन्द्र की दूसरी रचना "दसणकहरयणकरंड" से पड़ता है। यह ग्रंथ भी अभी तक प्रकाश में नहीं पाया। किन्तु इसकी संवत् १५४७ भाद्रपद शुक्ल १ चन्द्रवार की लिखी एक प्रति मुझे प्राप्त हुई है। इसमें २१ संधियाँ हैं और अंत में ग्रंथकार को प्रशस्ति भी है। इस प्रशस्ति में श्रीचन्द्र की गुरु-परम्परा बही दी गयी है जो कथाकोश में। इस प्रशस्ति की विशेषता यह है कि यह संस्कृत में नहीं प्रमभ्रंश में ही रची गयी है तथा यहाँ उन प्राचार्यों के कुन्दकुन्दान्वय के अतिरिक्त देशी गण का भी उल्लेख है तथा सहस्त्रकीति के शिष्य बीरचन्द्र के अतिरिक्त चार और शिष्यों के नाम अंकित हैं, देवकीति, वासव, उदयकीर्ति और सुरेन्द्र या देवचन्द्र । बड़े महत्व की बात यह है कि इस प्रशस्ति के अन्त में दो गाथाओं द्वारा उस रचना का काल, उस समय के नरेश तथा स्थान का भी स्पष्ट निर्देश कर दिया गया है यथा
एयारह-तेवीसा वाससया विक्कमस्स परवइणो। जइया गया हु तइया समाणियं सुंदरं कव्वं ॥१॥ कण्ण-रिंदहो रज्जेसहो सिरिसिरिवालपुरम्मि।
बुह-सिरिचंदें एउ किउ गंदउ कव्वु जयम्मि ॥२॥ अर्थात् विक्रम संवत् ११२३ व्यतीत होने पर कर्ण नरेन्द्र के राज्य में श्रीमालपुर में विद्वान् श्रीचन्द्र ने इस वंसणकहरयणकरंड नामक काव्य की रचना की । इस प्रकार इसका रचना-काल ११२३-५७ =१०६६ ईसवी सिद्ध होता है । कर्ण सोलंकी नरेश भीमदेव प्रथम के उत्तराधिकारी थे और उन्होंने सन् १०६४ से १०९४ तक राज्य किया।
श्रीमाल अपरनाम भीनमाल दक्षिण मारवाड़ की राजधानी थी। सोलंकीनरेश भीमदेव ने सन् १०६० ई. में वहां के परमारवंशी राजा कृष्णराज को पराजित कर बन्दीगृह में डाल दिया
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