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८८ ] सिरिचंदविरइयउ
[ ७.१५.१८महु पाणाणं पि पिऊ पवित्तु
जइ जेमाविज्जइ नेव मित्तु । अकयत्थु अम्ह तो हुयउ सव्वु
गिहधम्मु विवाहु अईवभव्यु । इय चितिऊण गंतूण गेहु
सुहि भणिउ नवेप्पिणु बद्धनेहु । २० भयवं जइ मइँ भिच्चेण कज्जु
तो महु घरि पइँ भोत्तव्वु अज्जु । सिवभूइ भणइ सोहणु पउत्तु
पर मित्त एहु अम्हहँ अजुत्त् ।। विरइज्जइ जं जणवयविरुद्ध
अन्नु वि रिसीहिँ आरिसि निसिद्ध । उक्तं च-शूद्रान्नं शूद्रसुश्रूषा शूद्रप्रेषणकारिता ।
शूद्रदत्ता च या वृत्तिः पर्याप्तं नरकाय तत् ॥ न शूद्राय मतिं दद्यान्नोच्छिष्टं न हविष्कृतम् ।
न चास्योपदिशेद् धर्म न चास्य व्रतमादिशेत् ॥ घत्ता-एवंविहु समयनिसेहु सुहे अवरु वि लोयवियारियउ ।
घरि तुम्हहँ तेणम्हारिसहिँ भोयणपाणु निवारियउ ।।१५।।
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वस्तु–इउ सुणेप्पिणु पुण्णभद्देण
पणवेप्पिणु पुणु भणिउ अम्ह गेहे तुम्हहँ अजुत्तउ ।। भयवंत भोत्तव्वु जइ तरिहे एउ किज्जउ निरुत्तउ ।। वर्ण गोट्ठिप अम्हेहिँ सहुँ सक्करसप्पिसमाणु ।
मन्नह दियनिव्वत्तियउ अविरुद्धउ पयमाणु ।। तामेण समिच्छिउ एम होउ
अह नेहें करइ न काइँ लोउ । इयरेण वि कय सामग्गि भव्व
गय उबवणभूमि मिलेवि सव्व । सुंदरपएसि सिवभूइ मित्तु .
थविऊण तत्थ अवियड्ढचित्तु । अप्पणु सकुडुबु अदूरे तासु
गोट्ठिहे बइठ्ठ सो कयविलासु । एत्थंतर मित्तसिणेह सुद्ध
सिवभूइ पियतु निएवि दुद्ध । मज्जं पिबदि त्ति जणेण घोसु
किउ लाइउ निहोसहँ वि दोसु । पुहईपहुणा वि य एह वत्त
सुय उल्लासीकयपिसुणवत्त । हक्कारिवि आउच्छिउ पुरोहु
कहि काइँ एहु जंपइ जणोहु । पहुवयणु सुणेप्पिणु भणइ विप्पु
इउ अलिउ इलेसर निम्वियप्पु । जइ संसउ तो जं भणहि देव
तं करमि पयासहि भुवणसेव । केण वि पउत्तु कयमच्छरेण
उव्वमहि असिउ किं वापरेण । ता तेण तं पि किउ न किउ खेउ
उग्गिरिउ खीरु सक्करसमेउ । तहो मज्जगंधु परिणइवसेण
पायउ आरोसियमाणसेण ।
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