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________________ ३. १७. ६. ], कहकोसु [ २६ वायत्थीहिँ तत्थ अविणीयहिँ पुच्छिउ किं पि हवेसइ एयहिँ । तं न पयासिउ केण वि कज्जें गुरुणा दूरविमुक्कावज्जें। ५ अवरु बइल्लु नियच्छह एंतउ तेणेयहिँ पहु एउ पउत्तउ । जइवि वाउ असमाहिहिँ कारणु करमि तो वि खलदप्पनिवारणु । उवसमेण उवसमइ कि दुज्जणु जाम न किज्जइ माणविहंजणु । जइ अच्छमि सहेवि इय भासिउ तो सव्वु वि मइँ कज्जु विणासिउ । राउ वि एउ मणेसइ निच्छउ सासणु एयहँ बुद्धि तुच्छउ। १० किं गुणसंपयाण तण किज्जइ जाए ससमउ लहुत्तहो निज्जइ । घत्ता--इय चितेवि तेण साहुवाद वाएण दिय । __ फणि गारुडिएण मंतेण व निद्दप्प किय ॥१५॥ मंति निरुत्तर निरवि नरिंदें साहु पसंसिउ परमाणंदें। जय. परवाइतमोहदिवायर जय अणंतगुणमणिरयणायर । अन्नहीं एह लील कहिँ छज्जइ पइँ मुएवि को महु मणु रंजइ । जिणसासणु परेक्कु अखलियगइ जहिँ पइँ जेहा अत्थि महामइ । एव थुणेवि लेवि सावयवउ राउ सपरियणु नियगेहहुँ गउ । सुयसायरेण गंपि गुरु दिट्ठउ पणवेप्पिणु वित्तंतुवइट्ठउ । तं निसुणेप्पिणु संघपहाणे भणिउ वियाणियभाविविहाणे । किउ अजुत्तु पइँ काइँ विवाएँ कलिमूलेण समाहिविराएँ। अवमाणिय' अवमाणु करेसहि अज्जु निसिहं तं संघु हणेसहिँ । वायठाणे जइ पावविनोएँ अच्छहि जागवि पडिमाजोग। १० तो तुह पाडिहेरु संपज्जइ मरणमहावय संघु विवज्जइ । ___घत्ता—गुरुवयणु सुणेवि चिंतमाणु तो संघहिउ । जाएप्पिणु तत्थ थिरु पडिमाजोएण थिउ ॥१६।। १७ एत्तहे तेहिँ चऊहिँ वि मंतिहिँ गहियकिवाणहिँ नाइँ कयंतहिँ गोउरबाहिरि झाणकयायरु चितिउ किं अन्नाण वराएँ सो हम्मइ जो हणइ पसिद्धउ एणम्हइँ परिहविय विसालें १६. १ अवसाणिय। परिहवपरिवड्ढिय जि अकित्तिहिँ । मारहुँ सवणसंघु निग्गंतहिँ । आलोएप्पिणु मुणि सुयसायरु । घाइएण खवणयसंघाएँ। एउ वयणु सत्थेसु निबद्धउ । खज्जउ एहु अज्जु खयकालें । ५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001367
Book TitleKahakosu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechandmuni
PublisherPrakrit Text Society Ahmedabad
Publication Year1969
Total Pages675
LanguageApbhramsa, Prakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size10 MB
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