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________________ १. २१. १८ ] , कहकोसु [ ११ २० थाणुयनिहाणदिटुंतकहा आहासमि लोयपसिद्ध जहा । उज्जेणिहिँ अस्थि अलच्छिघः दिउ विण्हुदत्तु अनयणपसरु । सो एक्कहिं वासरे पत्तियण गरहिउ कब्बाडविरत्तियण । अवरंधलया मग्गेवि जणु आणहिँ कुडुंबनिव्वाहधणु । तुहुँ पर नवसुंडु करेहि छणु मेल्लिवि नउ जाहि कहिँ वि भवणु। ५ निल्लज्जु निरुज्जमु पउररिसु कम्मेण केण तुहुँ किउ पुरिसु । कि पइँ जीवंतें नीसरहि जाजाहि जमाणणे पइसरहि। निसुणेप्पिणु भामिणिवयणगइ निग्गउ घराउ कयमरणमइ । जंतही उम्मूलियपायव हो अभिडिउ खंदु भालम्मि तहो । सिरछित्तरत्तोहलियतणु छज्जइ नं उययमाणु तवणु। १० घत्ता-दूसिउ दोसेण कम्मवसेण भउ अालोयणु भल्लउ । जा जोयइ पासु ता तले तासु नियइ निहाणउ दुल्लउ ।। २० ॥ २१ अहिमाणे मरणहाँ चल्लियउ कहिँ खंदु तेण सिरि सल्लियउ । सिरवेहिँ रुहिरुग्गालु कहिँ कहिँ दिट्ठिलाहु निहिलाहु कहिँ । अह पुण्णहिँ सव्वु वि संपडइ जंण घडइ तं पि हु संघडइ । दारुणु अरिचक्कु वि उवसमइ विसु अमियरसायणु परिणवइ । जलिय ग्गि वि जायइ सीयलउ सुकियं सव्वत्थ वि सोहलउ । ५ तं लेवि महाहरिसहो भरिउ गउ गेहहो विण्हुदत्तु तुरिउ । सनिहाणु सलोयणु निवि वरु किउ आयरु सोमिल्लाए वरु । धणवंतो पेसलु सयलु जणु धणहीणहो सयणु वि दुव्वयणु । तं निवि सलोयणु लद्धधणु चितिउ अवरंधलजुवइजणु । कलहेप्पिणु सयल वि वियलगइ निद्धाडिय लोहिं निययपइ। १० महि ढंढोलंत भमंत गया ते गड्डे विहड्ड पडेवि मया। जेमंधही लोयणलाहु तहो फुडु तेम समाहि अणायमहो । घत्ता-जाणेप्पिणु एउ जणियविवेउ जइणागमु भाविज्जइ। सिरिचंदपहूइ पुज्जविहूइ जं समाहि पाविज्जइ ॥ २१ ॥ विवहरसविसाले णेयकोऊहलाले। ललियवयणमाले अत्थसंदोहसाले ॥ १५ भुवणविदिदनामे सव्वदोसोवसामे। इह खलु कहकोसे सुन्दरे दिन्नतोसे ॥ मुरिणसिरिचंदपउत्ते सुविचित्ते पंतपयदसंजुत्ते । पढमो पीढियनामो अहियारो यं समत्तो त्ति ॥ ॥ संधि १ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001367
Book TitleKahakosu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechandmuni
PublisherPrakrit Text Society Ahmedabad
Publication Year1969
Total Pages675
LanguageApbhramsa, Prakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size10 MB
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