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( १०४ ) १५. दुभिक्ष की समाप्ति पर अर्धफालिक त्याग का आदेश साधुनों द्वारा अमान्य ।
इस प्रकार जिनकल्प से दो भेद (जिन और स्थविर) । रामिल्ल आदि प्राचार्यो जिनकल्पियों सहित लौटना व लघु भद्रबाहु के समीप पहुँचना । पूर्व-वृत्तान्त कथन । समीपनगर की बात । संघ का भिक्षार्थ नगर को गमन । भद्रबाहु पीछे होने से नगर लुप्त । मागे होने पर नगर प्रकट । पाहार ग्रहण । लौटने पर मुनियों के पैर कीचड़ से लिप्त, किन्तु भद्रबाहु को चतुरंगुल-ऋद्धि प्राप्त । एक मुनि श्रावक के घर कमंडल भूल प्राया। जाकर देखने पर कमंडल मिला, किन्तु नगर लुप्त । सबने लघु भद्रबाहु
को ऋद्धिसम्पन्न माना। १७. लघु होने पर भी गुणों के कारण सब मुनियों द्वारा भद्रबाहु की प्रदक्षिणा ।
उज्जैनी में भी दुभिक्ष का अन्त व विशाख मुनि का पुनरागमन । नगर को मायापुरी जान लघु भद्रबाहु सहित सबका उज्जैनी गमन व भद्रबाहु श्रुतकेवली की निषद्या की वन्दना । कुछ दिन रहकर सबका अन्यत्र प्रस्थान । उधर अर्धफालिक साधु सौराष्ट्र के बलभी नगर में पहुंचे। बघराय की रानी द्वारा सत्कार । राजा द्वारा न पूरे नग्न, न पूरे परिधान युक्त साधुनों की निन्दा। सबने श्वेत वस्त्र धारण किया। श्यामली पुत्र द्वारा जप्पुलिय (यापनीय) संघ की स्थापना । परीषह सहन पर इन्द्रदत्तादि वणिकों की कथा। कौशाम्बीपुर में इन्द्रदत्तादि बत्तीस वणिक् । केवल ज्ञानी से प्रायु का प्रश्न । सात दिन की प्रायु जानकर वैराग्य, यमुना तट पर स्वाध्याय व प्रायोग्यमरण में रत । अतिवृष्टि । पूर में सबका बहना। द्रह में पड़कर भी अविचलित व स्वर्गवास ।
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सन्धि ४८ कडवक
पृष्ठ १. तृषा परीषह सहन पर धर्मघोष मुनि की कथा । चम्पापुर में भट्टारक धर्मघोष ।
मासोपवास पश्चात् गिरिगुफा से आहारार्थ निर्गमन । वन में मार्गभ्रष्ट । हरिततृण पर गमन निषिद्ध । गंगातट पर वृक्ष के नीचे आसन । गंगादेवी द्वारा सुवर्ण पात्र में जल अर्पण । मुनि द्वारा निषेध । देवी का पूर्वविदेह गमन
व शंका निवारण । २. प्रातिहार्य दर्शन । शीतल वायु और जलवृष्टि । साधु का शुक्ल ध्यान, केवल
ज्ञान । इन्द्रादि देवों का आगमन । साधु का मोक्षगमन । ३. परीषह सहन पर श्रीदत्त भट्टारक कथा। इलावर्धन नगर, जितशत्रु राजा,
इलारानी, विनयवती धात्री, विकराल रूप । रानी की फाल्गुन अष्टाह्निक पूजा निमित्त गमन । धात्री का अमंगल रूप के कारण गमन निषिद्ध । उसकी
आत्मनिन्दा व अष्टाह्निक उपवास । राजा का वापिस प्रागमन । दुर्बलता का कारण जानकर धात्री को वरदान । धात्री की अन्य आठ दिन जिन-पूजा की मांग। ४८४
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