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यह एक जैन दर्शन निरूपक विशाल ग्रन्थ बन सकता हैं। वैसे द्रव्य पर्यायादि की प्ररूपणा करनेवाले जैन दर्शन के साहित्यमें अनेक ग्रन्थ है । किन्तु एक स्थानपर सूत्ररूपमें सरलभाषामें क्रमबद्ध विवेचन करना इस ग्रन्थकी अनोखी विशेषता हैं । आत्म हितार्थी स्वाध्यायी बन्धु यदि शान्त चिन्त होकर निष्पक्ष भावसे इस ग्रन्थका अध्ययन, मनन और चिन्तन करें तो उन्हें न कोई तत्वज्ञान करने में भटकन हो सकती है न विवादो के घेरोंमें पडकर कोई उलझन । अभिप्राय यह कि सम्यक् यथार्थ दृष्टि और बोध प्रदान करनेके लिये इस ग्रन्थ की महती उपयोगिता है।
यद्यपि अनुवाद करते समय प्रकरणगत विशेष विशेष सूत्र स्थानोपर विशेषार्थ देकर विषयको स्पष्ट करनेका प्रयत्न किया गया है फिर भी क्रमबद्ध स्वाध्याय करने में सुविधाकी दृष्टि रखकर ग्रन्थके प्रतिपाद्य विषयका सामान्य परिचय दिया जा रहा है
१) द्रव्य- यहां सर्व प्रथम लोक रचना और तत्त्वज्ञानके आधारभूत जीव, पुद्वल, धर्म अधर्म, आकाश और काल इन छह द्रव्योंका निर्देश करते हुए द्रव्यका लक्षण सत् है और सत् उत्पाद व्यय ध्रीव्यसहित होता है इस प्रकार द्रव्य और सत्का लक्षण निरूपितकिया गया हैं । छह द्रव्योंमें जीव चेतन हैं शेष अचेतन है, पुग्दल मूर्तिक है शेष अमूर्तिक हैं। इन्द्रियसे दिखनेवाला पुग्दल हैं जीव और पुग्दलोंको गमन करने में सहायक धर्म द्रव्य है और ठहरने में सहायक अधर्म द्रव्य हैं, सब द्रव्योंको अवकाश (स्थान) देनेवाला आकाश और परिवर्तनमें सहायक अधर्म द्रव्य है । जीव पुग्दल, धर्म अधर्म असंख्यात प्रदेशी, पुद्गल संख्यात असंख्यात अनन्तप्रदेशी, आकाश अनन्त प्रदेशी और काल द्रव्य
कारण.
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