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विवाह और ब्रह्मचर्य __ ब्रह्मचर्य की चर्चा में बहुत बार यह प्रश्न उठा है कि विवाह और ब्रह्मचर्य के सम्बन्ध में आपके विचार क्या हैं? यूँ तो मैं अपरिग्रहवादी ठहरा, विचार भी तो 'मेरे' नहीं हैं, विचारों का परिग्रह भी नहीं रखना चाहिए, किन्तु फिर भी शास्त्रों के चिंतन-मनन के आधार पर कुछ समझ सकता हूँ तो वह यह कहने की इजाजत देता है कि यदि विवाह को ईमानदारी और जवाबदारी के साथ स्वीकार किया गया है, तो वह भी ब्रह्मचर्य की साधना का एक रूप है।
'विवाह' शब्द का अर्थ है-विशेष रूप से वहन करना। एक-दसरे के उत्तरदायित्व को जिम्मेदारी की भावना से वहन करना—विवाह की शर्त है। जीवन में जो संघर्ष, कष्ट और झंझावात आदि हैं उनमें एक-दूसरे का सहयोग करके कर्तव्य पथ पर बढ़ते चलना-विवाह का एकरूप है। विवाह विधि में एक मंत्रोच्चार किया जाता है
समानीव आकूतिः समापनो हृदयानिव: हमारे विचार समान हों, हमारे हृदय जल की तरह एक रस हों-इस प्रतिज्ञा को जीवन भर निभाना, प्रेम और सहयोग के आधार पर जीवन को ऊर्ध्वगामी बनाना-विवाह का उद्देश्य होता है। ___ मैं कहना चाहूँगा ऐसा वैवाहिक जीवन ‘चतुर्भुज' (परमेश्वर) का जीवन है, उसमें जहर तो एक बूंद के बराबर है, और त्याग की मात्रा समुद्र के बराबर है।
— जहाँ विवाह जैसी कोई चीज नहीं, वहाँ वासना की लहर समुद्र की तरह लहराती है। किन्तु मनुष्य विवाह करके उस लहराते हुए सागर को प्याले में बन्द कर देता है।
इस दृष्टि से मैं विवाह को ब्रह्मचर्य की ओर जाने वाली अनेक पगडंडियों में से एक बड़ी पगडंडी मानता हूँ। कब खाएँ ! कैसे खाएँ? ___ एक बार पूछा गया कि घर में जब भोजन बने तो पहले किसका नम्बर आना चाहिए? कौन पहले खाए? भारतीय संस्कृति में इस सम्बन्ध में जो विचार दिए
अमर डायरी
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