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'पर्व' शब्द का अर्थ होता है, 'पौरी' । बाँस में दो गाँठों के मध्य में जो भाग होता है, उसे पौरी कहते हैं । यो पर्व के कई अर्थ होते हैं। एक बार कालिदास को समस्या दी गई कि
भारतं चेक्षु दण्डं-सिन्धु मिन्दंच वर्णय महाभारत, ईक्षु-दण्ड, सागर और चन्द्रमा—इन चारों का एक ही श्लोक में वर्णन करो । कालिदास ने तत्काल उत्तर दिया
पद मेकेन वक्ष्यामि प्रति पर्व रसोदयम्। एक श्लोक की क्या जरूरत है, सिर्फ एक पद में ही कह देता हूँ---
-'प्रति पर्व रसोदयम्'महाभारत को पढ़ते जाइए, ज्यों-ज्यों 'पर्व' पढ़ेंगे, रस की वृद्धि (आनन्द) होती जाएगी। गन्ने को ज्यों-ज्यों काटिए, हर ‘पौरी' पर रस का आस्वाद मिलेगा। सागर में भी हर पर्व (पड़वा) पर जल की वृद्धि होती है और चन्द्रमा की कला भी प्रत्येक पड़वा के बाद बढ़ती है।
तो इस प्रकार पर्व के अनेक अर्थ होते हैं, किन्तु सब में जो मूल बात रही है—'प्रति पर्व रसोदयम्।' ____ यह पर्व के ऊर्ध्वगामी विकास को ध्वनित करती है । हर पर्व नए विकास का
द्वार खोलता है। ___ पर्व मनाने का अभिप्राय है-जीवन को ऊर्ध्वगामी बनाना। प्रत्येक पर्व विकास और उल्लास का द्वार खोलता जाए-तभी जीवन में पर्यों की सार्थकता
है।
श्रेष्ठता का मानदण्ड
भगवान महावीर से एक बार पूछा गया---गृहस्थ जीवन श्रेष्ठ है या साधु जीवन ? भगवान् ने कहा-यह जीवन का क्षेत्र है, इसकी नाप-तोल वेश-भूषा पर नहीं, जीवन की परणति पर आधारित है।
किसी-किसी सद् गृहस्थ का जीवन सन्त जीवन से भी श्रेष्ठ और पवित्र हो सकता है।
“सन्ति एगेहि भिक्खुहि गारत्या संजमुत्तरा।"
अमर डायरी
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