________________
आभप्राय यह हुआ कि जो सदा, सर्वत्र सहज भाव से प्रवाहशील रहे वह धर्म है। आत्मा का अपना धर्म क्या है ? प्रश्न हो सकता है। वही बात यहाँ दुहरानी होगी, स्वभाव में रहना। __ प्रश्न अब आगे बढ़ता है-स्वभाव क्या है ? स्वभाव वह है, जो कभी बदले नहीं। दूसरे शब्दों में जिसके लिए किसी कारण की जरूरत न हो। यह प्रश्न नहीं हो सकता कि अग्नि गर्म क्यों है ? - यदि मैं आपसे प्रेमपूर्वक बात करता हूँ तो आप नहीं पूछेगे कि प्रेमपूर्वक क्यों बोल रहे हो? किन्तु मैं क्रोध में आकर झगड़ा करता रहा तो आप जरूर पूछेगे कि महाराज ! क्या बात हुई ? किसलिए झगड़ रहे हो? यदि मैं चुपचाप शान्ति से बैठा हूँ तो आप नहीं कहेंगे कि महाराज, शान्त क्यों बैठे हो। किन्तु यदि बोलता हूँ, लड़ाई करता हूँ तो जरूर उसका कारण पूछा जाएगा। _इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि शान्ति स्वभाव है, उसके लिए किसी कारण की जरूरत नहीं। अशान्ति, विग्रह यह विभाव है, विभाव के लिए जरूर कोई कारण बनेगा।
आत्मा जब तक स्वभाव में रहता है, धर्म है। अग्नि जब तक गर्म रहती है अग्नि है, किन्तु जब वह विभाव में आ जाती है तो अधर्म में प्रवेश कर जाती है, अग्नि पर पानी या अन्य कुछ पदार्थ डालकर शान्त कर दिया जाता है तो वह अग्नि नहीं रहती। वह भस्म या कोयला बन जाती है।
इसलिए आचार्य ने धर्म की परिभाषा की है--“वस्तु का स्वभाव ही धर्म
दुहरा व्यक्तित्व
एक लड़के को स्कूल में पढ़ाया गया--पृथ्वी घूमती है, सूर्य स्थिर है। लड़का घर पर पहुँचा तो पिता ने पूछा--आज क्या पाठ पढ़ा है ? . लड़के ने कहा-पृथ्वी घूमती है, सूर्य स्थिर है। पिता ने एक पत जमाते हुए कहा-मूर्ख ! कुछ नहीं जानता, 'पृथ्वी घूमती है, सूर्य स्थिर है'-यह गलत बात है । सत्य यह है कि-सूर्य घूमता है, पृथ्वी स्थिर है।
अमर डायरी
123
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org