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________________ देह, देश, काल और परिस्थितियाँ हमेशा बदलते रहते हैं। चूँकि यह जड़ हैं, इनको महत्व देने का अर्थ होता है, जड़ को महत्व, जड़ पूजा । जैन धर्म सदा ही चेतन पूजक रहा है। वह विभु की पूजा करता है, वैभव की नहीं। __तीर्थङ्करों के शरीर, संहनन, अतिशय आदि की चर्चा आती है, और वह बहुतों को आकृष्ट भी करती है, किन्तु मैं पूछता हूँ कि वह स्व-परिणति है, या पर-परिणति? बात जरा गहरी है, किन्तु समझने की है। तीर्थङ्कों के ऐश्वर्य का वर्णन जिनत्त्व का वर्णन नहीं है, आत्मा की स्व-परिणति का अंकन नहीं है। यह शब्द मेरे नहीं, किन्तु एक वरिष्ठ जैनाचार्य के हैं देवागम - नभोयानं चामरादि - विभूतयः । मायाविष्वपि दृश्यन्ते नातस्त्वमसि नो महान् ।। आचार्य समन्तभद्र प्रभो ! मैं तुम्हारे चरणों में इसलिए नत मस्तक नहीं हो रहा हूँ कि तुम्हारे पास देव आते हैं, दुन्दुभि-नाद होता है, छत्र-चाभर आदि अष्ट प्रातिहार्य तुम्हारे साथ-साथ रहते हैं, फूलों की वर्षा होती है, और तुम स्वर्ण कमलों पर पैर रखकर गमन करते हो, यह सब नाटक तो एक इन्द्रजालिया, एक मायावी जादूगर भी कर सकता है। आचार्य ने आगे कहा है कि तुम्हारी जो महत्ता है, वह तो इस बार में है कि ऐश्वर्य और विभूतियों के इस कीचड़ में भी तुम निर्लेप रहते हो। तुमने जिन आत्म-शक्तियों को प्रबुद्ध किया है, एक ज्योति जलाई है, जब मैं उस अनन्त शक्ति का दर्शन करता हूँ, तो तुम्हारे चरणों में अपने आप सिर झुक जाता है। - आचार्य ने इस प्रशस्ति में जैन-दर्शन का हृदय रख दिया है। वह ईश्वर को बाहरी ऐश्वर्य में दबाना नहीं चाहता, किन्तु उसके आन्तरिक ऐश्वर्य को उभार कर देखना चाहता है । इस दृष्टि से जैन-धर्म व्यक्ति-पूजक नहीं, किन्तु वह सदा से गुण-पूजक रहा है। अमर डायरी 118 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001353
Book TitleAmar Diary
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1997
Total Pages186
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, Spiritual, & Ethics
File Size8 MB
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