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बन्धन नहीं । बन्धन ही नहीं, वैसा करने के लिए उसे उचित सहयोग एवं सुविधा भी मिलती है। आवश्यकता अन्तर् को जगाने की, कर्मशक्ति को क्रियाशील करने की है।
मनुष्य को जो भी बुद्धि, शरीरशक्ति एवं संपत्ति मिली है, वह केवल अपने लिए ही नहीं है। उसमें आस-पास की सर्वसाधारण जनता का भी अपना एक भाग है। अत: वह भाग जन समाज को मिलना चाहिए। जो निजी सम्पत्ति मानकर उक्त सब शक्तियों को केवल अपने लिए ही दबाए बैठा है, वह समाज का चोर है। महर्षि नारद ने उसी के लिए कहा है-'स स्तेनो दण्डमहर्ति।'
सहृदयभाव से सुख-दुःख का परस्पर बँटवारा बिखरे हुए विश्व को सामूहिक कुटुम्ब की दिशा में प्रगति देता है।
एक परिवार अर्थात् एक सुख, एक दुःख । एक हँसे तो सब हँसें, एक रोये तो सब रोयें। अखण्डता, अभिन्नता ही परिवार की परिभाषा है।
आज राज्य धर्म निरपेक्ष होकर चल रहा है, पर धर्म, राजनीति का पुछल्ला पकड़े हुए उसके पीछे-पीछे चलने की चेष्टा कर रहा है।
जो धर्म राजसत्ता का मार्ग-दर्शक था, वह उसका अनुगमन करने वाला बन गया है। और क्या यह परिवर्तन स्पष्ट नहीं बता रहा है कि. धार्मिकों का तेज क्षीण हो रहा है और वे अपने निस्तेज व्यक्तित्व से धर्म को भी लांछित कर रहे
भक्त ने पूछा-“भगवन् ! तुम किन बातों से प्रसन्न होते हो?" भगवान् ने उत्तर दिया- 'मैं चार बातों से प्रसन्न होता हूँ।
१. अपने से बड़ों के प्रति सहनशील होने से, २. अपने से छोटों के प्रति दया करने से, ३. अपने समान पुरुषों के साथ मित्रता करने से, और ४. समस्त प्राणियों को समान दृष्टि से देखने से।
अमर डायरी
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