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जब तक अर्थार्जन के तरीके शुद्ध और नीतियुक्त नहीं होते, तब तक धर्म की हजार पुस्तकें भी जीवन में पवित्रता नहीं ला सकतीं ! गंगा-स्नान और तीर्थ-यात्रा भी उसके कलुष को नहीं धो सकती। __ स्मृतिकार मनु ने सर्वप्रथम समाज और धर्म की इस रीढ़ को स्वस्थ रखने पर बल दिया है
“योऽर्थशुचिर्हि स शुचिर्न मृद्वारि शुचिः शुचिः ।" सबसे बड़ी-शुद्धि (पवित्रता) अर्थ-शुद्धि है । मिट्टी और पानी के द्वारा प्राप्त होने वाली शुद्धि कोई शुद्धि नहीं है।
गुरु शिष्यों को नहीं खोजता, अपितु वही शिष्यों द्वारा खोजा जाता है। संस्कृत की प्राचीन सूक्ति के अनुसार “नहि रत्नमन्विष्यति, मृग्यते ही तत्” रल जौहरी को नहीं खोजता, जौहरी ही उसे खोजता है। ___ पर आज के गुरु शिष्यों को खोज रहे हैं, रत्न पानेवाले लेने वालों की तलाश में भटक रहे हैं।
आज शक्ति और ज्ञान अलग-अलग केन्द्रों में बँटे हुए हैं। एक केन्द्र पर राजनीति और विज्ञान खड़ा है और दूसरे केन्द्र पर धर्म और दर्शन ।
जब तक राजनीति और विज्ञान को धर्म और दर्शन से संचालित नहीं किया जाएगा, तब तक मानवजाति के कल्याण की आशा नहीं की जा सकती।
यूनान के प्रसिद्ध दार्शनिक प्लेटो से जब पूछा गया कि “शासक को दार्शनिक होना आवश्यक है या राजनीतिज्ञ? तो उसने बड़े जोरदार शब्दों में कहा-“जब तक तत्वज्ञान और राजनीति का एक ही व्यक्ति में मिलन नहीं होता, तब तक मानवजाति सुख और संतोष की सांस नहीं ले सकेगी।"
अमर डायरी
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