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जैन पुराणों का सांस्कृतिक अध्ययन
का कारणभूत "रत्नत्रय' का द्योतक मानते थे । यज्ञोपवीत सात लरों का बनता था और यह सप्तभंगीनय का प्रतीक था । इस क्रिया में ब्रह्मचारी का मुण्डन भी अनिवार्य था तथा इसे वचन, मन एवं कर्म की पवित्रता का कारण मानते थे । इसके अतिरिक्त इसी अवसर पर उसे अहिंसा व्रत धारण करने के लिए वचनबद्ध होना पड़ता था ।' प्रस्तुत आश्रम में कुछ क्रियाएँ निषिद्ध मानी जाती थीं- जैसे वृक्ष की दातौन करना, पान खाना, अंजन लगाना, हल्दी से स्नान करना, पलंग पर सोना, दूसरे व्यक्ति के शरीर के साथ सम्पर्क इत्यादि । जो विशेष क्रियाएँ विधेय थीं, उनमें प्रतिदिन स्नान, शरीर की शुद्धता और पृथ्वी पर शयन जैसे कार्यों पर विशेष बल दिया गया है । २
प्रस्तुत आश्रम में ब्रह्मचारी का मूल कर्त्तव्य था, गुरु-मुख से श्रावकाचार पढ़ना और विनयपूर्वक आध्यात्मशास्त्र का अवलोकन करना । आचार एवं आध्यात्म विषयक शास्त्र का ज्ञान प्राप्त करने के उपरान्त विद्वता एवं पाण्डित्य प्राप्ति हेतु अन्य शास्त्रों का अध्ययन भी अपेक्षित था। इन शास्त्रों में व्याकरण शास्त्र, अर्थशास्त्र, ज्योतिषशास्त्र, छन्दशास्त्र, शकुनशास्त्र एवं गणितशास्त्र का विशेष उल्लेख किया गया है ।
दोनों का ही दातौन करना,
ब्रह्मचर्य आश्रम में 'गृहीत विशेष व्रत' और 'यावत् जीवन व्रत' आचरण किया जाता था । 'गृहीत विशेष व्रत' (जिनमें वृक्ष की पान खाना, हल्दी से स्नान करना, पलंग पर सोना, दूसरे व्यक्ति के शरीर से सम्पर्क आदि सम्मिलित थे) ब्रह्मचर्य आश्रम तक ही सीमित रहता था, किन्तु 'यावत् जीवन व्रत' ब्रह्मचर्य आश्रम के उपरान्त जीवनपर्यन्त चलते थे, जिनमें मधुत्याग, मांसत्याग, पाँच, उदुम्बर फलों का त्याग और हिंसादि पाँच स्थूल पापों का त्याग आदि की प्रधानता थी ।
ब्रह्मचर्य आश्रम की समाप्ति एवं गृहस्थाश्रम में प्रवेश के पूर्व व्यक्ति की 'तावतरण क्रिया' सम्पन्न होती थी । प्रतीत होता है कि ब्रह्मचर्य आश्रम की अवधि
१. महा ३८।१०६ - ११३ २. वही ३८।११५-११७ ३. वही ३८ ।११७-१२० ४. वही ३८।१२१-१२२
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