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________________ धार्मिक व्यवस्था ३८१ और विष शस्त्र आदि अचेतन भेद से दो प्रकार के होते हैं ।' सभी प्रकार के अमनोज्ञ-अनिष्ट विषयों की उत्पत्ति न हो-इस प्रकार बार-बार चिन्ता करना प्रथम बाह्य आतध्यान है । यदि किसी प्रकार के अमनोज्ञ-अनिष्ट विषय की उत्पत्ति हो गयी हो तो उसका अभाव किस प्रकार होगा। इसी बात का निरन्तर संकल्प करना द्वितीय बाह्य आत्तध्यान कथित है।' इसी प्रकार मनोज्ञ सुख के बाह्य साधन चेतन (पशु, स्त्री, पुत्र आदि) तथा अचेतन (धन-धान्यादि) के भेद से दो प्रकार का होता है। (ii) आभ्यन्तर आर्तध्यान : इसके चार भेद होते हैं-प्रथम, अभीष्ट वस्तु की उत्पत्ति न हो, ऐसा चिन्तवन (ध्यान) करना। द्वितीय; यदि अभीष्ट वस्तु उत्पन्न हो चुकी है तो उसके वियोग का बार-बार चिन्तवन करना। तृतीय, इष्ट विषय का कभी वियोग न हो, ऐसा चिन्तवन करना। चतुर्थ, इष्ट विषय का यदि वियोग हो गया है तो उसके अन्त का विचार करना । मानसिक और शारीरिक साधन की दृष्टि से आभ्यन्तर आतध्यान दो प्रकार का होता है। हरिवंश पुराण में वर्णित है कि आर्तध्यान का आचार प्रमाद है, फल तिर्यञ्च गति है। यह परोक्ष क्षायोपशमिक भाव है और प्रथम से अष्टम गुण स्थान तक पाया जाता है।" (२) रौद्रध्यान : क्रूर अभिप्राय वाले जीव को रुद्र कहते हैं, उसका जो ध्यान होता है वह रोद्रध्यान का बोधक है। इसके चार भेद हैं। प्रथम, हिंसा में तीव्र आनन्द मनाना ही हिंसानन्द रौद्रध्यान है। द्वितीय, श्रद्धान करने योग्य पदार्थों के विषय में अपनी कल्पित युक्तियों से दूसरों को ठगने का संकल्प करना मृषानन्द रौद्रध्यान कथित है। तृतीय, प्रमादपूर्वक दूसरे के धन को बलात् हरने का अभिप्राय रखना स्तेयानन्द (चौर्यानन्द) रौद्रध्यान है । चतुर्थ, चेतन, अचेतन दोनों १. हरिवंश ५६६ २. वही ५६।१२ ३. वही ५६।१३ ४. वही ५६।१४ ५. वही ५६१७-८ ६. वही ५६०१०-११, ५६।१५ ७. वही ५६।१८; महा २११३६-४१ ८. वही ५६।१६; वही २११४२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001350
Book TitleJain Puranoka Sanskrutik Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDeviprasad Mishra
PublisherHindusthani Academy Ilahabad
Publication Year1988
Total Pages569
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Culture
File Size8 MB
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