SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 394
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैनपुराणों का सांस्कृतिक अध्ययन गतियों-मनुष्य, तैर्यग्योन , नरक और देव--में किया गया है। मृत्यु के बाद जीव स्वकर्मानुसार उपर्युक्त कथित चार गतियों में से एक में जन्म ग्रहण करता है। ६. अनेकान्तवाद और स्याद्वाद : 'न' तथा 'एकान्त'-इन दो शब्दों से तत्पुरुष समास से अनेकान्त शब्द निर्मित हुआ है। अनेकान्त का अर्थ-किसी वस्तु का निश्चय न होना । अनेकान्त जैन दर्शन का मूलाधार है । अनेक ग्रन्थों में अनेकान्त के लक्षण प्रदत्त हैं। धवलापुस्तक में अनेकान्त का लक्षण वर्णित है कि-'अनेक धर्मों या स्वादों के एकरसात्मक मिश्रण से जो जात्यन्तरपना या स्वाद उत्पन्न होता है, वही अनेकान्त शब्द का वाच्य है ।२ सप्तभंगीतरंगिनी के अनुसार-'जिसके सामान्य विशेष पर्याय व गुणरूप अनेक अन्त या धर्म हैं वह अनेकान्तरूप सिद्ध होता है।' ___आलोचित पद्म पुराण में अनेकान्त की समीक्षा करते हुए कहा गया है कि अनेकान्त में अनेक धर्म मिलकर एक हो जाते हैं। उदाहरणार्थ, भगवान् कार्यों के विधाता एवं पापों के विनाशक, स्वतः गुरु परन्तु स्वयं का कोई गुरु नहीं, सभी के नमस्कृत परन्तु किसी को प्रणाम न करने वाला, आदि एवं अन्त से रहित, आदि तथा अन्तिम योगी, स्वयं का परमार्थ न जानने वाले तथा दूसरे का परमार्य करने वाले और पर्यायाथिकनय से संसार के समस्त पदार्थ क्षणिक हैं तथा द्रव्याथिकनय से समस्त पदार्थों को नित्य माना गया है। हरिवंश पुराण में वर्णित है कि वस्तु अनेक धर्मात्मक होती है। महा पुराण में उल्लिखित है कि आत्मा एक नहीं है, अपितु प्रत्येक मनुष्य की आत्मा पृथक्-पृथक् है ।' जैन दर्शन एक वस्तु में अनन्त धर्म मानता है। इन धर्मों में से व्यक्ति अपने इच्छित धर्मों का समय-समय पर चयन करता है । वस्तु के जितने धर्मों का चयन हो सकता है, वे सभी धर्म वस्तु के अन्दर रहते हैं। ऐसा नहीं कि व्यक्ति अपनी इच्छा से उन धर्मों को पदार्थ पर आरोप करता है। अनेकान्तात्मक वस्तु के कथन के लिए 'स्यात्' शब्द का प्रयोग किया जाता है, जिसका अर्थ कथंचित् है। किसी एक दृष्टि से वस्तु इस प्रकार हो सकती है, तो १. हरिवंश ५८।२४२ २. धवला १५२२५२१ ३. सप्तभङ्गीतरङ्गिनी ३०२ ४. पद्म ६१८०-१८४. ५. हरिवंश ५८।१६५ ६. महा ५८६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001350
Book TitleJain Puranoka Sanskrutik Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDeviprasad Mishra
PublisherHindusthani Academy Ilahabad
Publication Year1988
Total Pages569
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Culture
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy