SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 385
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ धार्मिक व्यवस्था ३५१ परिषहजन्य-ये संवर के कारण हैं ।' कर्म सिद्धान्त में इसका विशेष विवरण उपलब्ध होगा। (र) निर्जरा : हरिवंश पुराण में उल्लिखित है कि विपाक और तप से कर्मों की निर्जरा होती है। इसी आधार पर इसके दो भेद किये गये हैं : विपाकजा निर्जरा एवं अविपाकजा निर्जरा। (i) विपाकजा निर्जरा-जीव का कर्म जब फल देकर स्वयं समाप्त-असम्बद्ध हो जाये, तब उसे विपाकजा निर्जरा संज्ञा प्रदान करते हैं। (ii) अविपाकजा निर्जरा : निश्चित समय से पूर्व जप-तप आदि उदीरणा द्वारा की गयी निर्जरा को अविपाकजा निर्जरा नाम से सम्बोधित करते हैं। उक्त पुराण में उल्लेख आया है कि निर्जरा के साथ-साथ संवर के हो जाने पर स्वकृत कर्मों का क्षय कर जीव सिद्ध हो जाता है। प्रकारान्तर से निर्जरा के दो भेद इस प्रकार हैं--(१) अनुबन्धिती निर्जरा-जिन कर्मों के उपरान्त पुनः कर्मों का बन्ध होता रहता है, उसे अनुबन्धिनी निर्जरा संज्ञा से अभिहित किया है । (२) निरनुबन्धिनी निर्जरा-जिस निर्जरा के बाद पूर्वकृत कर्म बिखरते तो हैं, परन्तु नवीन कर्मों का बन्ध नहीं होता है, उसे निरनुबन्धिनी निर्जरा नाम प्रदत्त है । अनुबन्धिनी निर्जरा के दो उपभेद हैं-अकुशलानुबन्धिनी निर्जरा-नरकादि गतियो में जो प्रतिसमय कर्मों की निर्जरा होती है, उसका बोध अकुशलानुबन्धिनी निर्जरा से होता है और कुशलानुबन्धिनी निर्जरा-संयम के प्रभाव से देव आदि गतियों में जो निर्जरा होती है, वह कुशलानुबन्धिनी निर्जरा की बोधक है।' कर्मसिद्धान्त में इसका भी विस्तृत वर्णन समुपलब्ध होगा। (ल) मोक्ष : सांसारिक माया-मोह के कारण मनुष्य अपनी आत्मा की संतुष्टि के लिए धर्माधर्म का विचार न करते हुए अनेक प्रकार के कार्यों को करता है। वह अपने कर्मफलों को भोगता है और उसे संसार के आवागमन से मुक्ति नहीं मिलती है। ऐसी स्थिति में हमारे चिन्तकों एवं मनीषियों ने संसार की नश्वरता एवं मनुष्य के भौतिक क्लेशों को देखकर इनसे छुटकारा पाने के साधनों का उल्लेख किया है। इसी प्रकार जैन पुराणों में इस सन्दर्भ में विस्तारशः विवरण निम्नवत् उपलब्ध होता है : . १. हरिवंश ५८।२६६-३०२, ६३२८६; तुलनीय-मूलाचार २४१ तथा ७४३ २. वही ५८।२६३-२६५ ३. वही ६३।८६-८७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001350
Book TitleJain Puranoka Sanskrutik Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDeviprasad Mishra
PublisherHindusthani Academy Ilahabad
Publication Year1988
Total Pages569
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Culture
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy