SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 375
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ धार्मिक व्यवस्था ३४१ गति, इन्द्रिय, काय, योग, वेद, कषाय, ज्ञान, संयम, दर्शन, लेश्या, भव्यत्व, सम्यक्त्व, संज्ञित्व और आहार-इन चौदह मार्गणाओं से जीव का अन्वेषण या स्वरूप जानने का विधान जैन पुराणों में उपलब्ध है। मिथ्यादृष्टि आदि चौदह गुणस्थानों से उसका उल्लेख हुआ है। सत्, संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, भाव, अन्तर एवं अल्पबहुत्व-इन आठ अनुयोगों और प्रमाण, नय, निक्षेप एवं निर्देश आदि द्वारा जीव तत्त्व के स्वरूप का निरूपण करना चाहिए।' ज्ञेय और दृश्य स्वभावों में जीव का जो अपनी शक्ति से परिणमन होता है वह उपयोग कहलाता है, यही जीव का स्वरूप है । ज्ञान दर्शन के भेदानुसार उपयोग दो प्रकार का होता है : (१) ज्ञानोपयोग-यह साकार (विकल्पसहित) पदार्थ का ज्ञान रखता है। मति, श्रुति, अवधि, मनःपर्याय, केवल ज्ञान, कुमति, कुश्रुत एवं कुअवधि आदि भेद से यह आठ प्रकार का होता है। (२) दर्शनोपयोग–यह अनाकार (विकल्परहित) पदार्थ का जानकार है । यह चक्षु, अचक्षु, अवधि एवं केवल के भेद से चार प्रकार का होता है । __ उत्पाद, व्यय एवं ध्रौव्य से युक्त, गुणवान्, स्वकर्मफल का भोक्ता, ज्ञाता, सुख-दुःख आदि से युक्त चारों योनियों में भ्रमण करने वाला, सम्यक्त्व आदि आठ गुणों से युक्त जीव का उल्लेख महा पुराण में हुआ है। इसी से इसका स्वरूप जानना चाहिए।' पद्म पुराण के वर्णनानुसार यह जीव बालू के कण, सूर्य एवं चन्द्र को किरण एवं आकाश के समान अनन्त है, यह अक्षय है । उपशामिक क्षायिक, क्षायोपशमिक, औदयक और परिणामिक-ये पाँच भाव जीव के निज तत्त्व महा पुराण में वर्णित हैं, इन गुणों से जीव को जाना जाता है। उक्त पुराण मेंपृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और वनस्पति-ये पाँच स्थावर और एक त्रस-कुल छः जीवों के निकाय उल्लिखित हैं । १. महा २४१६५-६८; हरिवंश ५८।३६-३८; पद्म २।१५६-१६० २. वही २४।१०१; पद्म १०५।१४७-१४८ ३. वही ७१।१६४-१६६ ४. जीवराशिरनन्तोऽयं विद्यते नास्य संज्ञयः । दृष्टान्तः सिकताकाशचन्द्रादित्यकरादिकः ॥ पद्म ३१।१६ ५. तस्योपशामिको भाषः क्षायिको मिश्र एव च ॥ स्व तत्त्वमुदयोत्थश्च पारिणामिक इत्यपि । निश्चितो यो गुणैरेभिः स जीव इति लक्ष्यताम् ॥ महा २४।६६-१०० ६. पृथिव्यापश्च तेजश्च मातरिश्वा वनस्पतिः । शेषास्रसाश्च जीवानां निकायाः षट्प्रकीत्तिताः ॥ पद्म १०५।१४१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001350
Book TitleJain Puranoka Sanskrutik Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDeviprasad Mishra
PublisherHindusthani Academy Ilahabad
Publication Year1988
Total Pages569
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Culture
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy