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________________ धार्मिक व्यवस्था प्रस्तुत प्रकरण में उस सामग्री का एक विहंगावलोकन करने का प्रयास हुआ है । पुराणों के माध्यम से जैनाचार्यों ने अपने धर्म को जनसाधारण तक पहुँचाने का प्रयास किया है । इसी लिए जैन पुराणों में जैन धर्म-दर्शन की अत्यधिक सामग्री उपलब्ध होती है । अध्ययन की दृष्टि से हम इसे दो भागों में विभक्त करते हैं : दार्शनिक पक्ष और धार्मिक पक्ष । जैन पुराण मूलतः दार्शनिक ग्रन्थ नहीं हैं; तथापि इनके अध्ययन से दार्शनिक पक्ष पर जो प्रकाश पड़ता है उसकी विवेचना अग्रपंक्तियों में किया गया है : १. लोक : लोक सृष्टि अर्थात् जगत्कर्तत्व का सिद्धान्त जैन धर्म में पूर्णतया अमान्य रहा है, किन्तु लोक विज्ञान और लोक विद्या का प्रतिपादन जैन ग्रन्थों में विस्तारशः हुआ है । विश्व, जगत, संसार, भुवन के लिए जैन परम्परा में लोक शब्द व्यवहृत हुआ है । जैन पुराणों में सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को दो भागों में बाँटा गया है - अलोकाकाश एवं लोकाकाश । हरिवंश पुराण में अलोकाकाश के विषय में वर्णन उपलब्ध होता है कि जिसका सब ओर से अनन्त विस्तार, अनन्त प्रदेश तथा अन्य द्रव्यों से रहित है, उसे अलोकाकाश कहा गया है । इसमें जीवाजीवात्मक अन्य पदार्थ नहीं दिखाई पड़ते, गति एवं स्थिति के निमित्त धर्मास्तिकाय एवं अधर्मास्तिकाय का अभाव होने से अलोकाकाश में जीव तथा पुद्गल की न तो गति होती है और न स्थिति । ' लोकाकाश के विषय में जैन पुराणों में उल्लिखित है कि यह अनन्त अलोTata के मध्य में स्थित है । यह लोक अकृत्रिम, अनादि, प्रकाशमान एवं अनन्त है तथा यहाँ बन्ध और मोक्ष का फल भोगा जाता है । लोक से जो बहिर्गत है उसे अलोक कहते हैं । हरिवंश पुराण के वर्णनानुसार लोक का निर्माण काल द्रव्य और अपने अवान्तर विस्तार सहित अन्य समस्त पंचास्तिकाय - धर्म, अधर्म, आकाश, जीव तथा पुद्गल - से हुआ है।" जैन पुराणों में लोक को तीन भागों में विभक्त किया गया है - अधोलोक, मध्यलोक और ऊर्ध्वलोक । इनका आकार क्रमश: वेतासन, झल्लरी और मृदंग के समान है। तीन प्रकार से स्थित होने के कारण लोक को तिलोक या विविध सम्बोधित किया गया है ।" हरिवंश पुराण में लोक विषयक यह उल्लेख १. हरिवंश ४।१-३ २. पद्म १०५ १०६ हरिवंश २।११०, ६३२८८; महा ४ ३६-४० कालः पञ्चास्तिकायाश्च सप्रपञ्चा इहाखिलाः । हरिवंश ४।५ ४. हरिवंश ४।५ - ६ ; महा ४।४१; पद्म १४ १४६ १०५/१०६ ३. ५. पद्म १०५।११०-१११ Jain Education International ३३५ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001350
Book TitleJain Puranoka Sanskrutik Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDeviprasad Mishra
PublisherHindusthani Academy Ilahabad
Publication Year1988
Total Pages569
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Culture
File Size8 MB
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