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________________ कला और स्थापत्य २५५ नगर ऊँचे गोपुरों से संयुक्त होते थे । बड़ी-बड़ी वापिकाओं - अट्टालिकाओं से नगर को अलंकृत किया जाता था । पद्म पुराण में वर्णित है कि नगर में स्त्रियाँ, पुरुष, बच्चे, मुनि, वेश्याएँ, लासक (नृत्य करने वाले), शत्रु, शस्त्रधारी, याचक, विद्यार्थी वन्दिजन, धूर्त, संगीतशास्त्र के पारगामी विद्वान्, वैज्ञानिक ( विज्ञान ग्रहणोद्युक्त) साधु, वणिक, शरणागत, वार्तिक, विदग्ध, विट, चारण, कामुक, सुधी तथा मातंग आदि रहते हैं । महा पुराण में व्यवस्था दी गयी है कि प्रत्येक नगर के मध्य में चतुष्क ( चौराहा ) निर्मित किया जाता था । चौराहे चौड़े होते थे तथा नगर के सभी प्रमुख स्थानों से सम्बद्ध रहते थे ।' नगर के प्रतोली और रथ्या" का उल्लेख महा पुराण में हुआ है । प्रतोली रथ्या से चौड़ी गली थी । प्रतोली नगर के प्रमुख बाजार एवं मुहल्लों की ओर जाती थी, जबकि रथ्या सीमित मुहल्ले तक ही जाती थी । [i] दुर्ग: पद्म पुराण के अनुसार शत्रु के द्वारा आक्रान्त होने पर राजा लोग दुर्ग में आकर शरण लेते थे । शत्रु पर आक्रमणार्थ भी राजा दुर्ग में आश्रय लेता था । महा पुराण में दुर्ग के अन्दर यथास्थान यन्त्र, शस्त्र, जल, घोड़े, जौ तथा रक्षकों का उल्लेख उपलब्ध है ।" पद्म पुराण में दुर्गम-दुर्ग का सन्दर्भ प्राप्त है ।" जैनेतर साहित्य में दुर्गों के प्रकार का विस्तारशः वर्णन उपलब्ध है । कौटिल्य ने चार प्रकार - औदक, धान्वन, पार्वत तथा वन - के दुर्गों का उल्लेख किया है ।" अन्य शास्त्रकारों के मतानुसार छः प्रकार के दुर्ग होते हैं - धान्व, मही, वार्क्ष, जल, नृ तथा गिरि ।" शुक्राचार्य ने नौ प्रकार के दुर्ग बताया है - ऐरिण, परिख, पारिध, वन, धन्व, जल गिरि, सैन्य तथा सहाय । समराङ्गणसूत्रधार में दुर्ग-विधान की विवेचना उपलब्ध है । इसमें विजयार्थी राजा के लिए छ: प्रकार - जल, पंक, वन, ऐरिण, पर्वतीय तथा गुहा के दुर्गों की आवश्यकता पर बल दिया गया है ।" आलोचित जैनपुराणों १. पद्म २४६, ३१६६-१७० २. वही २१३६ ४५ .३. ४. महा २६।३ वही ४३।२०८ वही २६।३ ५. ११. ८. E. १०. अर्थशास्त्र २।३-४ महाभारत शान्तिपर्व ५६३५, ८६ ४-५; मनु ७ ७०, विष्णुधर्मसूत्र ३ ६; मत्स्य पुराण २।७।६-७; अग्नि पुराण २२२।४-५ १२. शुक्र ४।८५०-८५४ १३. द्विजेन्द्र नाथ शुक्ल-समराङ्गणीय भवन निवेश दिल्ली, १६६४, पृ० ४१ ६. पद्म ४३।२८ ७. वही २६।४० Jain Education International महा ५४।२४ पद्म २६।४७ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001350
Book TitleJain Puranoka Sanskrutik Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDeviprasad Mishra
PublisherHindusthani Academy Ilahabad
Publication Year1988
Total Pages569
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Culture
File Size8 MB
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