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________________ २४० जैन पुराणों का सांस्कृतिक अध्ययन विगत अनुच्छेद में लिपि संस्कार के संदर्भ में सिद्धमात्रिका' का उल्लेख किया जा चुका है। प्रसंगानुसार यहाँ 'सिद्धमात्रिका' का तात्पर्य व्यक्त करना अनिवार्य हो जाता है। प्राचीन भारतीय लिपियों में 'सिद्ध मात्रिका-लिपि' का स्थान महत्त्वपूर्ण प्रतीत होता है। सर्वप्रथम पाश्चात्यपुराविद् एवं भारतीय लिपियों के समीक्षक जर्मन विद्वान् व्यूलर ने 'सिद्धमात्रिका-लिपि' का उल्लेख किया था। उनके मतानुसार अरब-यात्री अल्बेरुनी ने अपने भारतीय वृत्तान्त के संदर्भ में जिस 'सिद्धमात्रिक-लिपि' का उल्लेख किया है वह अति महत्त्वपूर्ण है। उसने वर्णित किया है कि भारत में इस लिपि का प्रयोग पहले किया जाता था।२ व्यूलर के विचारानुसार गुप्तोत्तर-काल में अर्थात् सातवीं शती ई० से ब्राह्मी लिपि विकास के नवीन स्तर पर आसीन होती है। सामान्यतया इस लिपि को 'कुटिल-लिपि' के नाम से सम्बोधित करते हैं। इसके अक्षर वक्राकार होते हैं तथा मात्राओं को अलंकृत करने की चेष्टा की गई है। जर्मन विद्वान् के कथनानुसार सम्भतः अरब-यात्री के 'सिद्धमात्रिका-लिपि' का तात्पर्य इसी 'कुटिल-लिपि' से है, क्योंकि इसमें मात्राओं अथवा मात्रिकाओं को सिद्ध अर्थात् अलंकृत निर्मित करते थे । महा पुराण के उक्त विषयक वर्णन से ऐसा प्रतीत होता है कि वस्तुतः 'सिद्धमात्रिका-लिपि' (सम्भवतः जैन सम्प्रदाय में प्रचलित) एक धार्मिक लिपि थी। यह लिपि कुटिल लिपि की समकालीन रही हो, ऐसी सम्भावना की जा सकती है। पर कुटिल लिपि से इसका पूर्ण तादात्म्य स्थापित नहीं किया जा सकता। महा पुराण के वर्णन से इसकी निम्नांकित विशेषताएँ स्पष्ट होती हैं : प्रथमतः, इस लिपि में निबद्ध होने वाले लेखों और अभिलेखों का प्रारम्भ 'सिद्धं नमः' मंगलाचरण से प्रारम्भ किया जाता था। द्वितीय, इसमें स्वर और व्यञ्जन दोनों विद्यमान होते थे। तृतीय, इसमें संयुक्त अक्षरों को अत्यधिक सतर्कता से निर्मित करते थे। चतुर्थ, इसमें सांकेतिक अक्षर भी रहते थे। पंचम, इसमें अक्षरों को इतना सुडौल और सुदर्शन बनाते थे कि मोती की तरह चमकते थे। महा पुराण के उक्त वर्णन में ब्राह्मी शब्द का भी उल्लेख हुआ है और ऐसा कथित है कि सिद्धमात्रिका को ब्राह्मी ने धारण किया। ऐसी स्थिति में यह सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है कि सिद्धमात्रिका लिपि ब्राह्मी की ही अंगभूत थी १. व्यूलर-इण्डियन पैलियोग्राफी, कलकत्ता, १६५६, पृ० ६८ २. सचाऊ, इण्डिया, १,१७८, व्यूलर द्वारा उद्धृत, पादटिप्पणी २१८ ३. महा १६।१०६-१०८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001350
Book TitleJain Puranoka Sanskrutik Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDeviprasad Mishra
PublisherHindusthani Academy Ilahabad
Publication Year1988
Total Pages569
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Culture
File Size8 MB
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