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________________ १६२ जैन पुराणों का सांस्कृतिक अध्ययन पृथ्वीपाल, पृथ्वीपति, भूमिप, क्षितिभुज, विशांपति, लोकनाथ आदि उपाधियाँ प्रयुक्त हुई हैं।' कालिदास ने अपने ग्रन्थों में भगवान्, प्रभु, जगदेशनाथ, ईश्वर, ईश, मनुष्येश्वर, प्रजेश्वर, जनेश्वर, देव, नरदेव, नरेन्द्र सम्भव, मनुष्यदेव, राजेन्द्र, वसुधाधित, राजा, भूमिपति, अर्थपति, प्रियदर्शन, भवोभर्तुः, महीक्षित, विशांपति, प्रजाधिप. मध्यम लोकपाल, गोप, महीपाल, क्षितीश, क्षितिप, नरलोकपाल, अगाधसत्व, दण्डधर, पृथिवीपाल, भट्टारक आदि उपाधियों का प्रयोग राजा के लिए किया है ।२ जैन पुराणों के रचनाकाल में राजा उसी प्रकार की उपाधियाँ-परमभट्टारक, राजा, नृप; महाराजाधिराज, चक्रवर्तिन, परमेश्वर, देव, परमदेवता, सम्राट, ऐकाधिराज, सर्वभौम, महाधिराज आदि-धारण करते थे, जिस प्रकार हमारे आलोचित जैन पुराणों में वर्णित है। पुरातात्विक साक्ष्यों से भी जैन पुराणों के रचनाकाल में राजाओं द्वारा वैसी ही उपाधि धारण करने के प्रमाण मिलते हैं । हर्ष के मधुवन प्लेट से ज्ञात होता है कि गुप्तराजाओं की परमभट्टारक एवं महाराजाधिराज उपाधियाँ उसके समय में भी प्रचलित थीं। दकन के राष्ट्रकूट राजवंश के राजा कृष्णराज तृतीय (१०वीं शती) अकालवर्ष, महाराजाधिराज, परममाहेश्वर, परमभट्टारक, पृथ्वीवल्लभ, श्री पृथ्वीवल्लभ, समस्तभुवनाश्रय, कन्धारपुराधीश्वर आदि उपाधियाँ धारण करता था। ११ वीं शती के परमार राजा परमभट्टारक, महाराजाधिराज, परमेश्वर आदि उपाधियाँ धारण करते थे। बारहवीं शती के गहड़वाल वंशीय राजा परमभट्टारक, महाराजाधिराज, परमेश्वर, “परममाहेश्वर, गजपति, नरपति, राजनयाधिपति, विविधविचारविद्यावाचस्पति उपाधियाँ धारण करते थे। ये राजागण अपनी शक्ति से अधिक ऊँची-ऊँची उपाधियाँ धारण करते थे। [ब प्रकार : जैन पुराणों में राजाओं के प्रकारों का उल्लेख उपलब्ध है। महा पुराण में चमर के आधार पर राजाओं का विभाजन हुआ है । जैनेन्द्रदेव के पास चौसठ चमर थे। इसी आधार पर चक्रवर्ती बत्तीस, अर्धचक्रवर्ती सोलह, मण्लेश्वर १. प्रेमकुमारी दीक्षित-महाभारत में राज व्यवस्था, लखनऊ, १६७०, पृ० २६ २. भगवत शरण उपाध्याय-कालिदास का भारत, भाग १, काशी, १६६३, पृ० १३२-१३३ ३. बैज नाथ शर्मा-हर्ष एण्ड हिज टाइम्स, वाराणसी, १६७०, पृ० २५०-२५१ ४. बी० एन० एस० यादव-सोसाइटी ऐण्ड कल्चर इन् नार्दर्न इण्डिया, इलाहाबाद, १६७३, पृ० ११३-११४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001350
Book TitleJain Puranoka Sanskrutik Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDeviprasad Mishra
PublisherHindusthani Academy Ilahabad
Publication Year1988
Total Pages569
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Culture
File Size8 MB
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