SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 224
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १६० । जैन पुराणों का सांस्कृतिक अध्ययन [ख] राजा और शासन-व्यवस्था १. राजा तथा उसका महत्त्व : राजा राज्य का सर्वोपरि महत्त्वपूर्ण व्यक्ति होता था। उसी के आदेशानुसार सम्पूर्ण राज्य-व्यवस्था संचालित होती थी। कौटिल्य ने तो संक्षेप में राजा को ही राज्य स्वीकार किया है।' राजा के महत्त्व के विषय में जैन पुराणों में प्रचुर सामग्री उपलब्ध है। पद्म पुराण के वर्णनानुसार राजा द्वारा ही धर्म का अभ्युदय होता है ।२ जैन पुराणों के उल्लेखानुसार पृथ्वी पर मनुष्यों को धर्म, अर्थ काम एवं मोक्ष के उपभोग का अधिकार प्राप्य है, किन्तु राजाओं द्वारा सुरक्षित होने पर ही ये मनुष्यों को उपलभ्य होते हैं।' यही विचार जैनेतर साहित्य में भी प्राप्त है। जैनेतर विद्वान् कात्यायन के मतानुसार राजा गृहविहीन अनाथ और निवंशी व्यक्तियों का रक्षक, पिता एवं पुत्र के तुल्य होता था।" महा पुराण के अनुसार पृथ्वी पर जो कुछ भी सुन्दर, श्रेष्ठ एवं सुखदायक वस्तुएँ हैं, वह राजा के उपभोग के योग्य होती हैं। महा पुराण में वर्णित है कि राजा चारों वणों एवं आश्रमों का रक्षक (आश्रय) होता था। अन्य स्थल पर उक्त पुराण में ही राजा में देवी गुण की कल्पना कर उसे ब्रह्मा स्वीकार किया गया है। जैनेतर साहित्य में भी राजत्व में देवत्व की मान्यता मिलती है। महा पुराण में रत्न सहित नव निधियाँ, रानियाँ, नगर, शय्या, आसन, सेना, नाट्यशाला, बर्तन, भोजन एवं वाहन आदि राजा के दस भोग के साधन वर्णित हैं । उक्त पुराण में ही अन्य स्थल १. राजा राज्यमिति प्रकृतिसंक्षेपः । कौटिल्य कार २. धर्माणां प्रभवस्त्वं हि रत्नानामिव सागरः । पद्म ६६।१० ३. पद्म २७।२६; महा ४१।१०३ ४. कामन्दक १1१३; शुक्र १६६७ ५. राजनीति प्रकाश, पृ० ३० ६. महा ४।१७३-१७५ ७. वही ५०।३ ८. वही ५४।११७ ६. गौतम ११।३२; आपस्तम्बधर्मसूत्र १।११।३१।५; मनु ७।४-८, ६।६६; शुक्र १७१-७२; मत्स्य पुराण २२६।१ १०. सरत्ना निधयो दिव्याः पुरं शय्यासने चमूः । नाट्यं सभाजनं भोज्यं वाहनं चेतितानि वै ।। महा ३७।१४३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001350
Book TitleJain Puranoka Sanskrutik Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDeviprasad Mishra
PublisherHindusthani Academy Ilahabad
Publication Year1988
Total Pages569
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Culture
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy