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जैन पुराणों का सांस्कृतिक अध्ययन (vi) सीमान्तकमणि' : स्त्रियाँ अपने माँग में इसको धारण करती थीं। आज भी माँग-टीका के नाम से इसका प्रचलन है ।
(vii) उत्तंस२ : किरीट एवं मुकुट से भी यह उत्तम कोटि का आभूषण होता था । तीर्थकर इसको धारण करते थे। अन्य प्रकार के मुकुटों से इसमें सुन्दरता अत्यधिक होती थी । इसका प्रयोग विशेषतः धार्मिक गुरु ही करते थे। इसका आकार किरीट एवं मुकुट से लघु होता था, परन्तु मूल्य इनसे अधिक होता था।
(viii) कुन्तली' : किरीट के साथ ही इसका भी उल्लेख प्राप्य है। इससे ज्ञात होता है कि किरीट से कुन्तली का आकार दीर्घ होता था। कलगी के रूप में इसको केश में लगाते थे । किरीट के साथ ही इसको भी धारण करते थे। इसका प्रयोग स्त्री-पुरुष दोनों में प्रचलित था। जन साधारण में इसका प्रचलन नहीं था । इसके धारण करने से व्यक्तित्व में कई गुनी वृद्धि हो जाती थी। अपनी समृद्धि एवं प्रभुता के प्रदर्शनार्थ स्त्रियाँ इसको धारण करती थीं।
(ix) पट्ट : बृहत्संहिता में पट्ट का स्वर्ण निर्मित होना आवश्यक माना है। इसी स्थल पर इसके अधोलिखित पाँच प्रकारों का भी वर्णन उपलब्ध होता है : (i) राजपट्ट (तीन शिखाएँ), (ii) महिषीपट्ट (तीन शिखाएँ), (iii) युवराजपट्ट (तीन शिखाएँ), (iv) सेनापतिपट्ट (एकशिखा), (v) प्रसादपट्ट (शिखाविहीन)। शिखा से कलगी का तात्पर्य है। इस प्रकार स्पष्ट होता है कि इसका निर्माण स्वर्ण से ही होता था और पगड़ी के ऊपर इसे बाँधा जाता था। आजकल भी विवाह के शुभावसरों पर पगड़ी के ऊपर पट्ट (कलगी) बाँधते हैं।
[ब] कर्णाभूषण : कानों में आभूषण धारण करने का प्रचलन प्राचीनकाल से चला आ रहा है । स्त्री-पुरुष दोनों ही के कर्णपालियों में छिद्र होते थे और दोनों ही इसे धारण करते थे । कुण्डल, अवतंस, तलपत्रिका, बालियाँ आदि कर्णाभूषण में परिगणित होते हैं । कर्णाभूषण एवं कर्णाभरण' शब्द इसके बोधक हैं। १. पद्म ८१७० २. महा १४७ ३. वही ३७८ ४. वही १६।२३३ ५. बृहत्संहिता ४८।२४ ६. नेमिचन्द्र शास्त्री-आदि पुराण में प्रतिपादित भारत, पृ० २१० ७. पद्म ३।१०२ ८. वही १०३१६४
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