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कर्म-बन्ध के कारण ___यह एक निश्चित सिद्धांत है कि कारण के बिना कोई भी कार्य 'नहीं होता। क्या बीज के बिना वृक्ष कभी पैदा होता है ? हाँ, तो कर्म भी एक कार्य है। अतः उसका कोई-न-कोई कारण भी अवश्य होना चाहिए। बिना कारण के कर्म-स्वरुप कार्य किसी प्रकार भी अस्तित्व में नहीं आ सकता। . जैन धर्म में कर्म-बन्ध के मूल कारण दो बतलाए हैं-राग और द्वेष । भगवान् महावीन ने अपने अन्तिम प्रवचन में कहा है-'रागो य दोसो विय कश्म-बीय।' अर्थात् राग और द्वेष ही कर्म के बीज हैं, मूल कारण है। आसक्तिमूलक प्रवृत्ति को राग और घृणामूलक प्रवृत्ति को द्वेष कहते हैं। पुण्य-कर्म के मूल में भी किसी-न-किसी प्रकार की सांसारिक तृष्णा एवं आसक्ति होती है। घृणा और आसक्ति से रहित शुद्ध प्रवृत्ति से कर्म- बधंन टूटता है, बंधता नही।
मुक्ति के साधन ____कर्म-बंधन से रहित होने का नाम मुक्ति है। जैन धर्म की मान्यता है कि जब आत्मा राग-द्वेष के बंधन से सर्वथा छुटकारा पा लेता है, आगे के लिए कोई नया कर्म बाँधता नही है, और पुराने बँधे हुए कर्मो को भोग लेता है, या धर्म-साधना के द्वारा पूर्ण रुप से नष्ट कर देता है, तो फिर सदा काल के लिए मुक्त हो जाता है, अजर-अमर हो जाता है। जब तक कर्म और कर्म से कारण राग-द्वेष से मुक्ति नहीं मिलती, जब तक आत्मा किसी भी दशा में मोक्ष नहीं प्राप्त कर सकता।
__ अब प्रश्न केवल यह रह जाता है कि कर्म-बंधन से मुक्ति पाने के क्या साधन हैं, क्या उपाय है। जैन धर्म इस प्रश्न का बहुत सुन्दर उत्तर देता है। वह कहता है कि-आत्मा ही कर्म बाँधने वाला है और वही उसे तोड़ने वाला भी है। कर्मों से मुक्ति पाने के लिए वह ईश्वर से आगे गिड़गिड़ाने अथवा नदी-नालों और पहाड़ों पर तीर्थयात्रा के
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