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आया है, वह हम मनुष्यों को क्या आदर्श सिखा सकता है ? उसके जीवन एवं व्यक्तित्व पर से हमें क्या कुछ मिल सकता है ? हम मनुष्यों के लिये तो वही आराध्यदेव आदर्श हो सकता है,जो कभी मनुष्य ही रहा हो, हमारे सामने ही संसार के सुख-दुख एवं माया मोह से संत्रस्त रहा हो और बाद में अपने अनुभव एवं आध्यात्मिक जागरण के बल से संसार के समस्त सुख-भोगों को ठुकरा कर निर्वाणपद का पूर्ण अधिकारी बना हो, फलस्वरूप सदा के लिये कर्म--बन्धनों से मुक्त होकर, राग-द्वेष से सर्वथा रहित होकर अपने मोक्ष-स्वरूप अन्तिम आध्यात्मिक लक्ष्य पर पहुंच चुका हो। 'जन' में जिनत्व के दर्शन
श्रमण-संस्कृति से तीर्थंकर, अरिहन्त जिन एवं सिद्ध सब इसी श्रेणी के साधक थे। वे कुछ प्रारम्भ से ही ईश्वर न थे, ईश्वर के अंश या अवतार न थे, अलौकिक देवता भी न थे। वे बिल्कुल हमारी तरह ही एक दिन इस संसार के सामान्य प्राणी थे, पापमल से लिप्त एवं दुःख-शोक, आधि-व्याधि से संत्रस्त थे। इन्द्रिय-सुख ही एकमात्र उनका ध्येय था और उन्हीं वैषयिक कल्पनाओं के पीछे अनादिकाल से नानाप्रकार के क्लेश उठाते, जन्म-मरण के झंझावात में चक्कर खाते धूम रहे थे। परन्तु जब वे आध्यात्मिक साधना के पथ पर आए, तो सम्यक्-दर्शन के द्वारा जड़-चेतना के भेद को समझा, भौतिक एवं आध्यात्मिक सुख के अन्तर पर विचार किया,फलतः संसार की वासनाओं से मुँह मोड़ कर सत्पथ के पथिक बन गये और आत्मसंयम की साधना में लगातार अनेक जन्म बिताकर अन्त में एक दिन वह मानव-जन्म प्राप्त किया कि जहाँ आत्म-साधना के विकास-स्वरूप अरिहंत, जिन एवं तीर्थकर रूप में प्रकट हुए। श्रमण-संस्कृति के प्राचीन धर्म-ग्रन्थों में आज भी उनके पतनोत्थान-सम्बन्धी अनेक महत्वपूर्ण अनुभव एवं धर्म-साधना के क्रमबद्ध चरण-चिन्ह मिल रहे हैं। जिनसे यह सिद्ध होता है कि प्रत्येक साधारणजन में जिनत्व के
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