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________________ -- - 'अवतारवाद' की कल्पना मनुष्य के मन की दीनता और परावलम्बिता का स्पष्ट चित्रण है। जैन-दर्शन मनुष्य की श्रेष्ठता का दर्शन है, उनमें मनुष्य के अवतरण-पतन का आदर्श नहीं, बल्कि, उत्तरण-उत्थान का आदर्श है। वह 'नर' में|| - 'नारायण' और 'जन' में 'जिनत्व' का दर्शन करता है, और करता है प्रत्येक जन' को 'जिनत्व' की ओर बढ़ाने के लिए उत्प्रेरित ! प्रस्तुत निबन्ध में इसी प्रश्न पर विस्तार के साथ चर्चा की गई है। अवतारवादयाउत्तारवाद - ब्राह्मण-संस्कृति अवतारवाद में विश्वास करती है। ईश्वर एक सर्वोपरि शक्ति है। वह भूमण्डल पर अवतार धारण कर मनुष्य आदि का रुप लेती है और अधर्म का नाश कर धर्म की स्थापना करती है। यह है अवतारवाद की मूल भावना । संसार में राम, कृष्ण आदि जितने भी महापुरुष हैं, ब्राह्मण-संस्कृति ने सबको ईश्वर का अवतार माना है और कहा है कि भूमि का भार उतारने के लिए समय-समय पर ईश्वर को विभिन्न रूपों में जन्म ग्रहण करना पड़ता है। इसके विपरीत श्रमण-संस्कृति, फिर चाहे वह जैन-संस्कृति हो अथवा बौद्ध-संस्कृति हो, अवतारवाद की धारणा में किसी भी तरह का विश्वास नहीं रखती! श्रम-संस्कृति का आदिकाल से यही आदर्श रहा है कि इस संसार को बनाने-बिगाड़ने वाली ईश्वर या अन्य किसी नाम की कोई भी सर्वोपरि शक्ति नहीं हैं अतः जबकि लोकप्रकल्पित सर्वसत्ताधारी ईश्वर ही कोई नहीं है। तब उसके अवतार लेने की बात को तो अवकाश ही कहाँ रहता है ? यदि कोई ईश्वर हो भी, तो वह सर्वज्ञ, सर्व शक्तिमान क्यों नीचे का रुप ले? क्या वह जहाँ है वहाँ से - % - - - - - अवतारवाद या उत्तारवाद (143) For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.001349
Book TitleJainatva ki Zaki
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1998
Total Pages202
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size8 MB
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