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कार्य नहीं करता। वह तो जीवों का जैसा कर्म होता है, उसी के अनुसार फल देने आदि का कार्य करता है।' यह तर्क मन्द बुद्धि लोगों के लिए हो सकता है, परन्तु जरा भी बुद्धि से काम लिया जाए, तो इस तर्क का खोखलापन अपने आप प्रकट हो जाता है। एक सुन्दर उदाहरण देकर हम इस तर्क का उत्तर देंगे ।
अपराधी कौन ?
एक धनी आदमी है। उसने कुछ ऐसा कर्म किया कि जिसका फल उसका धन अपहरण होने से मिल सकता है। ईश्वर स्वयं तो उसका धन चुराने के लिए आता नहीं । अब किससे चुरवाए। हाँ तो किसी चोर के द्वारा उसका धन चुरवाता है। ऐसी स्थिति में, जबकि एक चोर ने एक धनी का धन चुराया तो क्या हुआ ? कोई भी विचारक उत्तर दे सकता है कि इस धनापहरण क्रिया से धनी हो तो पूर्वकृत कर्म का फल मिला और चोर ने नवीन कर्म किया। इस नवीन कर्म का फल ईश्वर ने न्यायाधीश के द्वारा चोर को जेल पहुंचा कर दिलवाया। अब बताइये कि चोर ने जो धनी का धन चुराने की चेष्टा की, वह अपनी स्वतन्त्रता से की अथवा ईश्वर की प्रेरणा से की। यदि स्वतन्त्रता से की है और इसमें ईश्वर की कुछ भी प्रेरणा नहीं है, तो फिर धनी को जो कर्म का फल मिला, वह अपने आप मिला, ईश्वर दिया हुआ नहीं मिला । यदि ईश्वर की प्रेरणा से चोर से धन चुराया तो वह स्वयं कर्म करने में स्वतन्त्र नहीं रहा, निर्दोष हुआ। अब जो ईश्वर न्यायाधीश के द्वारा चोर ने चोर का दण्ड दिलवाता है, वह किस न्याय के आधार पर दिलवाता है ? पहले तो स्वयं चोरी करवाना और फिर स्वयं ही उसको दण्ड दिलवाना, यह किस दुनिया का न्याय है?
यह एक उदाहरण है। इस उदाहरण के द्वारा ही विवाद का निर्णय हो जाता है। यदि ईश्वर को संसार की खट-पट में पड़ने
जैनत्व की झाँकी (140)
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