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________________ स्तोत संसार सागर अपार नहीं किनारा, - तूफान मोह अति भीषण रूप धारा । हा प्राण कंठगत डूबन की तैयारी, कीजे सहाय असहाय सहायकारी । पापी अनेक भवसागर पार तारे, दुःखार्त दीन बहते दुख से उबारे । तेरी अनन्त महिमा कथ कौन गावे ? देवेन्द्र देवगुरु भी बस हार पावे । लीजे जरा इधर भी अब शुद्धि मेरी, क्यों हो रही स्वजन पै जगदीश देरी । Jain Education International कर्ता तुझे सब कहें पर तू अकर्ता, शंका बड़ी विकट है अब कौन हर्ता । क्या थाह है जलधि के जलबिन्दुओं की, माया अचिन्त्य कहिए गुणसिन्धुओं की । M स्वर्गापवर्ग सुखद देवेन्द्र वन्दित किंवा विचित्र इसमें कुछ भी नहीं है, पूर्णेन्दु से कुमुद - बोधन ज्यों सही है । स्मर गर्वहारी, जगत् त्रय मोदकारी । श्रद्धा व भक्तियुत वन्दन लीजिएगा, सेवा स्वकीय कृपया बस दीजिएगा । [ ३६ ] ३०, दिसम्बर, १९३४ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001348
Book TitleKavyanjali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1989
Total Pages50
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size2 MB
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