SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 42
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आदर्श साधु जिसने प्रबल इन्द्रिय दलों पर प्राप्त कर ली है विजय, जिस का सुमानस शान्त सुस्थिर और रहता है अभय । सुख - दुःख की परवाह नहीं करता किसी भी काल में, सच्चा वही है साधु, जो फंसता न जग जंजाल में ॥ विश्व के सुख भोग को जो जानता है तुच्छ - तर, निज संयमी विलास को सतत समझता श्रेष्ठ - तर । जो मन, वचन और कर्म द्वारा क्रोध करता है नहीं, अभिमान - माया - ग्रन्थि - भेदक वर त्यागी है वही ॥ सन्तोष के क्षीराब्धि में सत्स्नान जिसने कर लिया, तृष्णा तरंगित लोभनद जिसने सुशोषित कर दिया । जो सत्यता का, शीलता का, नम्रता का सिन्धु है, वह वीर त्यागी है, जो सारे विश्व का वर बन्धु है ॥ जिसका कि लाभालाभ में होता न चंचल चित्त है, जिसके हृदय में ज्ञान का अक्षय अनुत्तर वित है । कर्तव्य पालन की लगी रहती है जिसको नित्य धुन, शुभ सत्य के कहने में जिसका संकुचित होता न मन ॥ जिसका सुभाषण नम्रता - माधुर्य से परिपूर्ण है, तप की गदा से कर्मदल का नित्य करता चूर्ण है । रोक दे दृढ़ धीरता के साथ इच्छा का प्रवाह, सच्चा विरागी है वही, संसार सागर का मल्लाह ॥ Jain Education International [ www ३३ ] For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001348
Book TitleKavyanjali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1989
Total Pages50
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size2 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy