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उद्बोधन अरे वीर पुत्रों ! सुनों अब न सोवो,
सँभल के उठो, स्व जीवन न खोवो । जरा देखो जल्दी यह क्या हो रहा है,
जमाना किधर से किधर हो रहा है। सभी लोग आगे बढ़े जा रहे हैं,
पवन - वेग सर - सर चले जा रहे हैं। बड़ा खेद है तुम पड़े ऊँघते हो,
नहीं अपनी बाबत कभी सोचते हो। घसी हैं तुम्हारे में क्या - क्या प्रथाएँ,
लगी हैं तुम्हारे भी क्या-क्या बलाएँ। परस्पर सभी मत ज्यों लड़ रहे हो,
प्रलय की प्रबल आँधी में उड रहे हो। शरम है बड़ी लक्ष्य से फिर गए हो,
महावीर - आदर्श से गिर गए हों। भला पुत्र वे जग में कैसे बड़े हों,
___ पिता के शुभादशं से जो गिरे हो । समझ अपने आदर्श को फिर सँभालो,
हृदय में 'अमर' वीर - वाणी जचालो। समुद कर्म के क्षेत्र में कूद आवो, सदा वीर-जय से गगन को गुजावो ।।
महेन्द्रगढ, दीपावली, १९३३
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