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दान की भनक कान पड़ते बिदक पड़े, मानो कोटि - कोटि बिच्छु शीश पै धसक पड़े। चमड़ी उतरवा ले हँस - हँस काम पड़े, दमड़ी न दान-नामे कभी दोन-हाथ पड़े।
अन्त समय द्रव्य कुछ काम नहीं आएगा, दोनों हाथ खाली किए जगत से जाएगा। दान - पुण्य विना आगे कुछ भी न पाएगा, शीश धुन - धुन लोभी तब पछताएगा।
सन् १९३४
शरीर दुर्ग का ध्वंस ! नव यौवन के अति ही दृढ़ दुर्ग
कलेवर मध्य मदान्ध पड़ा, रस रंगन में निज भान भुला,
. भरता निशि-वासर पाप घड़ा। शठ चेतन भूप ! विलोक जरा
ध्वज मस्तक पै वह आन गड़ा, अब व्याधि बढ़ी यम-सैन्य चढ़ीं,
कर दें झट बाहर निकाल खड़ा।
महेन्द्रगढ़, सन् १९३५
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