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अछूत - क्रन्दन
'अछूत' ! क्या नाम रक्खा हमारा,
चले हृदय पै रह्- रह दुधारा । घृणा टपकती प्रति अक्षरों से, किए सभी भाँति गिनें गिनावें नित हिन्दुओं में,
नरेत्तरों से ||
घुसे हमारे बल कौंसिलों में ।
पता न पाया पर बन्धुता का, रहा सदा वर्तन शत्रुता तड़ाग में वस्त्र मलीन धोलें, स्वदेह श्वा शूकर भी पर न हम धो मुँह - हाथ पावें,
अ - वारि मछली सम बिलबिलाते, तृषार्त्त भरने जल वहाँ दड़ादड़ होती कुटाई,
निराश वापिस लौट बस आवें ॥
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का ॥
कोलें ।
जहाँ भरे जल अब्दुल कसाई ॥ धजा निराली, प्रभु मन्दिरों की,
-
कूप जाते ।
बजें सदा पायल रंडियों की । परन्तु हम हा ! घुसने न पाते,
जगत्पिता दर्श न पुत्र पाते ॥ उठा सड़ा कुक्कुर गोद लेते,
गजब कि सस्नेह मुख चूम लेते ।
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