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________________ क्षा क्षमा समान श्रेष्ठ . ज्योष्ठ धर्म और कौन है ? भला सुमेरु से बड़ा महीधर और कौन है ? क्षमा बिना समग्र उग्र कर्म - काण्ड व्यर्थ है अभीष्ट स्वर्ग - सौख्यदा सदा यही समर्थ है। निकाल लाल - लाल आंख नाक - भौंह सिकोड़ के असभ्यता प्रपूर्ण भ्रष्ट - भ्रष्ट गालियाँ बके। सदा प्रचण्ड क्रोधि की दवाग्नि से जला मरे, मनुष्य क्या, पिशाच है, जरा न जो क्षमा करे । क्षमा वही स्वमित्र के समान शत्रु को लखे, कभी किसी प्रकार की विरोधिता नहीं रखे । प्रशान्त चित से सदैव स्नेह स्रोत - सा बहे, मुखारविन्द पै कृपामयी प्रसन्नता रहे ।। असह्य भर्त्सना तथा वध - प्रहार भी सही, अखंड श्रेय सर्वथा स्व - शत्रु का सदा चहो। मसीह (ईसा) सूलि की सुतीक्षण नोक पै चढ़ा हुआ, प्रसन्न हो, अराति - अर्थ मांगता रहा दुआ ॥ बलिष्ठ के समक्ष 'चूं' करें न, मौन साध लें, परन्तु दीन - हीन पै तुरन्त तेग तान लें। नपुंसकाग्रगण्य वे मनुष्य नीच निंद्य हैं, क्षमावती- समाज में नहीं कदापि वंद्य हैं। नागल, आषाढ़, १६६३ . [ १७ ] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001348
Book TitleKavyanjali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1989
Total Pages50
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size2 MB
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