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________________ महावीर शान्ति सुधारस के वर सागर, - लोक अलोक विलोक लिए, संहारी । जगलोचन केवल - ज्ञान के धारो ॥ शेष - सुरेश - नरेश वोर जिनेश्वर धर्मं दिनेश्वर, - क्लेश अशेष समूल - Jain Education International सभी, प्रण में पद पंकज बारं वारी । - क्षण भंगुरता भीम जैसे बली फेंके नभ में गजेन्द्रवृन्द, मंगल कारी ॥ - वीर जयन्ती १६३६ मंगल कीजिए पार्थ जैसे लक्ष्यवेधी कीर्ति जग जानी है । राम कृष्ण जैसे नर पुंगव जगत पति, रावण की दैत्यता भी किसी से न छानी है || काल के न आगे चली कुछ भी बहाना बाजी, छिनक में छार भये रह गई कहानी है । तेरे जैसे कीटाकार मूढ़ की बिसात क्या है, करले सुकृत चार दिन जिन्दगानी है ॥ बाघौर दुर्ग, दिनांक : ८ मई १९३६ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001348
Book TitleKavyanjali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1989
Total Pages50
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size2 MB
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