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विना विचारे जो करे
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'राजन् ! कल तुमने चेलना के साथ नदी के तीर पर तपहुए किसी मुनि के दर्शन किये थे !"
स्या करते
"हाँ, प्रभु किये थे" - श्रेणिक ने कहा ।
" रात्रि में जब रानी का एक हाथ कम्बल से बाहर रह गया और वह सर्दी के कारण ठिठुर कर अकड़ गया तो उसकी पीड़ा को अनुभव करती हुई रानी ने अपनी स्थिति से उम मुनि की स्थिति की तुलना की और तब एकाएक उसके मुँह से निकल पड़ा – 'इस सर्दी में उनका क्या हाल होगा ?' राजन् उसकी यह उक्ति किसी अन्य पुरुष के लिए नहीं थी " - भगवान् ने घटना का मर्म खोला ।
सम्राट के क्रोध पर सहसा घड़ों पानी गिर पड़ा। मेरे आदेश से कहीं भयंकर अनर्थ न हो गया हो, इसी आकुलता से वे बिना और कुछ पूछे, सहसा राजमहलों की ओर दौड़ पडे । ज्योंही राजमहलों के स्थल से आग की गगनचुम्बिनी ज्वालाओं को देखा, तो उनका चेहरा फक हो गया। यह क्या ? अरे ! सर्वनाश हो गया । स्त्री - हत्या, वह भी निरपराध 1 पाप ! महापाप
!
अभयकुमार मार्ग में ही सम्राट् को मिल गया । सम्राट् ने कहा - "अभय ! तू भी आज मूर्ख हो गया ? अनर्थ कर डाला तूने ? कितना भयंकर पाप ? अबलाओं को जीवित अग्निदाह मूर्ख, चला जा मेरी आँखों के सामने से । "
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