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________________ समाज और संस्कृति तो निःसन्देह यह एक प्रकार की अप्रशस्त एवं अशुभ भावना है । इसके विपरीत यदि गुरु अपने शिष्य के प्रति यह भावना रखता है, कि मैं अपने शिष्य को अधिकाधिक ज्ञान दूँ, ताकि वह योग्य बन सके, विद्वान बन सके । वह अपना और समाज का नाम चमका सके । उसका यश यदि बढ़ता है, तो साथ में संघ का यश भी बढ़ेगा । इस प्रकार की भावना को अमुक अंश में पूर्वापेक्षया शुभ और प्रशस्त कहा गया है । किन्तु इससे भी ऊँची एक भावना है, जिसे आत्म-कल्याण की भावना कहा जाता है । जब गुरु यह सोचता है, कि मेरा यह शिष्य स्वयं अपना भी कल्याण करे और दूसरों के कल्याण में भी वह निमित्ति बने । मैंने इसके जीवन का भार अपने ऊपर लिया है, उस स्थिति में मेरा यह कर्त्तव्य हो जाता है, कि ऐसा मार्ग बतलाऊँ जिससे इसकी आत्मा का कल्याण हो । इस प्रकार की भावना को अमुक अंश में शुभांश रहते हुए भी विशुद्ध एवं पवित्र भावना कहा जाता है । वस्तुतः गुरु-शिष्य का सम्बन्ध इसी भावना पर आधारित रहना चाहिए । मनुष्य के मन की भावना तीन धाराओं में होकर प्रवाहित होती है—–शुभ, अंशुभ और शुद्ध । शुभ, अशुभ की धारा मोह - जन्य है और शुद्ध धारा मोह के अभाव की सूचक होती है । कोई भी कर्त्तव्य जब विकल्प - रहित केवल प्राप्त कर्त्तव्य की पूर्ति के रूप में होता है, तब वह शुद्ध होता है । मैं आपसे यह कह रहा था, कि मोह पर विजय प्राप्त करना ही साधक की साधना का एक मात्र लक्ष्य होना चाहिए । साधक, फिर भले ही वह गृहस्थ हो अथवा साधु, जब तक वह शुभ और अशुभ के बन्धनों से ऊपर उठकर जीवन की शुद्ध स्थिति में नहीं पहुँचेगा, तब तक उसके जीवन का कल्याण नहीं हो सकेगा । साधु-जीवन ही नहीं, गृहस्थ जीवन का भी यही लक्ष्य है, कि वह अशुभ से शुभ की ओर, और शुभ से शुद्ध की ओर निरन्तर अग्रसर होता रहे । चारित्र चाहे अणुव्रत रूप हो, और चाहे महाव्रत रूप हो, उसे अशुद्ध बनाने वाला राग और द्वेष भाव ही है । यह मत समझिए कि राग द्वेष की अग्नि के परिताप से बचने के लिए साधु का जीवन है, और गृहस्थ का जीवन है, उसमें तपने के लिए । मैं इस प्रकार के विचार को ठीक नहीं समझता । धर्म तो धर्म है, फिर भले ही वह साधु के जीवन में हो अथवा गृहस्थ के जीवन में हो । मैं इस तथ्य को स्वीकार करता हूँ, कि साधु की अपेक्षा एक गृहस्थ का जीवन हजारों-हजार बन्धनों से बद्ध रहता है, परन्तु जहाँ ८४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001344
Book TitleSamaj aur Sanskruti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1994
Total Pages266
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Culture
File Size15 MB
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