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________________ जीवन का रहस्य अशुभ हो सकता है, प्रशस्त हो सकता है और अप्रशस्त हो सकता है, किन्तु कभी भी शुद्ध नहीं हो सकता । शुभ और अशुभ के उदय से ही बन्ध होता है । शुभ के उदय से बन्ध भी शुभ होता है और अशुभ के उदय से बन्ध भी अशुभ होता है, किन्तु जितने-जितने अंश में शुभ या अशुभ का उदय रहता है, उतने-उतने अंश में कर्म का शुभ या अशुभ बन्ध अवश्य रहता है । आत्मा की सर्वथा शुद्ध अवस्था तभी सम्भव है, जब कि मोहनीय कर्म का सर्वथा क्षय हो जाए । शुद्ध अवस्था ही साधक की साधना का एक मात्र लक्ष्य है और वह शुद्ध अवस्था बिना समत्व-योग के आती नहीं है । लोग यह कहते हैं, कि धर्म कहाँ है और अधर्म कहाँ है ? धर्म संसार की किसी भी वस्तु-विशेष में नहीं रहता है । धर्म रहता है, विवेक में । संसार में कदम-कदम पर धर्म है और संसार में कदम-कदम पर अधर्म भी है । मनुष्य की प्रत्येक चेष्टा में पुण्य की धारा, पाप की धारा और धर्म की धारा प्रवाहित हो सकती है । आवश्यकता केवल इस बात की है कि यह विवेक रखा जाए, कि हम किस कार्य को किस प्रकार कर रहे हैं ? संसार में सब कुछ प्राप्त किया जा सकता है । धन, वैभव, भोग, विलास, पूजा और प्रतिष्ठा, इनका मिलना कठिन नहीं है । आत्मा को ये अनन्त बार मिले हैं और अनन्त बार मिल सकते हैं । एक विवेक ही ऐसा तत्व है, जो आत्मा को आसानी से नहीं मिल सकता । विवेक प्राप्त हो जाने पर फिर यह आत्मा कर्म-बन्धन से शीघ्र ही छुटकारा प्राप्त कर सकता है । कुछ लोग यह विचार करते हैं, कि साधु जीवन की धारा शुद्ध पवित्र धारा है, किन्तु मैं यह कहता हूँ, कि साधु जीवन में भी यदि राग और द्वेष विद्यमान हैं, तो उसका जीवन भी शुभ और अशुभ धाराओं में विभक्त हो सकता है । गुरु और शिष्य का सम्बन्ध एक पवित्र सम्बन्ध माना जाता है, परन्तु यदि वहाँ पर भी समभाव नहीं है अथवा समत्व-योग नहीं है, तो वह पवित्र नहीं रह सकता । गुरु यदि यह सोचे कि मैं अपने शिष्य को अधिक पढ़ा दूंगा, तो वह मेरे हाथ से निकल जाएगा, फिर वह स्वतन्त्र बन जाएगा । उस समय मेरी सेवा कौन करेंगा, कौन मुझे आहार लाकर देगा और कौन मुझे जल लाकर देगा, इसलिए शिष्य को पढ़ाना उचित नहीं है, उसे अज्ञानी रखना ही ठीक है, ताकि वह एक दास के समान हमेशा गुलाम बना रहे । यदि किसी गुरु के मन में अपने शिष्य के प्रति इस प्रकार की दूषित भावना रहती है, ८३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001344
Book TitleSamaj aur Sanskruti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1994
Total Pages266
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Culture
File Size15 MB
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