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जीवन का रहस्य
एक प्रकार का राग तो अवश्य है, किन्तु प्रशस्त राग है । पत्नी का अपने पति के प्रति जो पतिव्रता भाव मूलक प्रीतिभाव है, अथवा पति का अपनी पत्नी के प्रति जो एक पत्नीव्रत रूप स्वदार-सन्तोषात्मक प्रीति-भाव है, वह भी राग ही है, किन्तु फिर भी उसे प्रशस्त एवं शुभ माना गया है, क्योंकि पति और पत्नी दोनों में एक-दूसरे के प्रति सदभावना स्वरूप कर्त्तव्य बुद्धि रहती है । यदि इस कर्त्तव्य-बुद्धि को भुला दिया जाए, और उन दोनों में एकमात्र वासना का सम्बन्ध ही रह जाए, तब उन दोनों का वह प्रणयभाव प्रशस्त एवं शुभ राग न होकर, अप्रशस्त
और अशुभ राग ही रहेगा । पत्नी को वासना का केन्द्र स्वीकार करना एक भयंकर भूल है और यही पतन का एक मात्र कारण है । कर्त्तव्य-निष्ठा और कर्त्तव्य-भावना ही उन दोनों के जीवन को पवित्र बनाती है । पति और पत्नी के मध्य जो प्रणय एवं प्रेम सम्बन्ध होता है, उसे शुभ और अशुभ बनाना, उन दोनों की कर्तव्य और व्यभिचारी भावना पर निर्भर करता है । पत्नी और पति का प्रेम-सम्बन्ध, जब देह से ऊपर उठकर कर्त्तव्य कोटि पर पहुँचता है, तब वह इतना गहन और इतना गम्भीर माना गया है, कि उसके उज्ज्वल उदाहरण संसार में कर्तव्य का प्रकाश विकीर्ण करते हैं । पत्नी और पति शरीर से भिन्न होते हुए भी भावना
और विचार से दोनों में तादात्म्य रहता है । इसलिए भारतीय साहित्य में उक्त शब्दों के पूर्व धर्म शब्द का प्रयोग कर उन्हें धर्म-पत्नी और धर्म-पति कहा गया है । राम का सीता के प्रति जो प्रेम था अथवा सीता का राम के प्रति जो प्रेम था, उसे हम पवित्रतम प्रेम कहते हैं । आध्यात्म शास्त्र की भाषा में उसे हम शुभ राग और प्रशस्त राग कहते हैं । उन दोनों का प्रेम एवं प्रणय शारीरिक वासना पर ही आधारित नहीं था, बल्कि निष्ठा और कर्तव्य पर भी आधारित था । यदि सीता में कर्तव्य बुद्धि न होती और अपने पति के प्रति उसके मन में प्रशस्त राग न होता, तो वह कभी भी अयोध्या के राज-प्रासादों के सुखों को छोड़कर विकट वन के भयंकर दुःखों को उठाने क्यों जाती ? उसे इतना तो पता था ही, कि राजमहल छोड़ते ही जीवन दुःखमय बन जाएगा ? किन्तु सीता के मन में राम के प्रति जो प्रशस्त राग एवं पवित्र प्रेम था, उसी के कारण उसने राजमहल के सुखद भोगों को ठुकराकर, विकट वन
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