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________________ 'समाज और संस्कृति न हो । जब आत्मा में से मोह का सर्वथा अभाव हो जाता है; उस समय पर आत्मा को वीतराग अथवा जिन कहा जाता है । आत्मा की यह विशुद्ध स्थिति है । परन्तु जब तक मोह की सत्ता विद्यमान है, तब तक यह आत्मा रागी कहलाता है, बद्ध कहा जाता है । संसारी अवस्था में क्या ऐसी भी दशा हो सकती है, जब कि आत्मा में मोह क्षोभ न रहता हो । जैन दर्शन के अनुसार एकादश आदि अग्रिम गुण-स्थानों में ही यह स्थिति आती है । प्रथम गुण स्थान से लेकर दशम गुण स्थान तक किसी न किसी रूप में मोह की सत्ता रहती ही है । जिस प्रकार एक व्यक्ति मदिरा-पान करके बे-भान हो जाता है, उसे अपने स्वरूप का परिज्ञान नहीं रहता, उसी प्रकार मोह के कारण यह आत्मा बे-भान हो जाता है, अपने स्वरूप को भूल जाता है । साधक की अध्यात्म-साधना का लक्ष्य है, मोह पर विजय प्राप्त करना और राग एवं द्वेष को जीतना । जीवन की पवित्रता तभी स्थिर रह सकती है, जब कि मोह क्षीण हो जाए अथवा उपशान्त हो जाए । जब तक मोहनीय कर्म का पूर्णरूपेण उदयभाव रहता है, तब तक आत्मा न अपने स्वरूप में रहता है और न किसी प्रकार के चारित्र एवं संयम का ही पालन कर सकता है । चारित्र मोहनीय कर्म के उदय से चारित्र भी अचारित्र बन जाता है, संयम भी असंयम हो जाता है । चारित्र और संयम की आराधना तीन स्थिति में ही की जा सकती है—एक तो तब, जब कि मोहनीय कर्म उपशान्त रहे, दूसरी तब, जब कि मोहनीय कर्म का क्षयोपशम रहे । तीसरी तब, जब कि चारित्रमोह का पूर्णरूपेण क्षय हो जाता है । मोहनीय कर्म का सर्वथा अभाव होने पर साधक के जीवन में जो संयम स्थिति आती है, वह तो परम पवित्र होती है, सर्वथा विशुद्ध होती है । राग का जन्म मोह से ही होता है, राग स्वयं मोह रूप ही होता है, यह सत्य है, फिर भी इतना तो अवश्य कहना ही पड़ेगा कि राग के दो भेद हैं-प्रशस्त राग और अप्रशस्त राग अथवा शुभ राग और अशुभ राग । यद्यपि दोनों ही प्रकार का राग त्याज्य है, फिर भी यह तो मानना ही पड़ेगा, कि अप्रशस्त राग की अपेक्षा प्रशस्त राग अच्छा होता है । अशुभ राग की अपेक्षा शुभ राग कुछ अच्छा होता है । प्रशस्त राग क्या है एवं शुभ राग क्या है ? इस प्रश्न के उत्तर में कहा गया है, कि भगवान की भक्ति करना, गुरु आदि की सेवा करना, यह भी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001344
Book TitleSamaj aur Sanskruti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1994
Total Pages266
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Culture
File Size15 MB
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