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________________ समाज और संस्कृति 1 उसके पास लगाम न हो, तो वह अश्व अपने सवार को कहीं भी और कभी भी गिरा सकता है । जिस प्रकार कार का आनन्द लेने के लिए ब्रेक की आवश्यकता है और घुड़सवारी का आनन्द लेने के लिए लगाम की आवश्यकता है, उसी प्रकार धन की आसक्ति पर नियंत्रण करने के लिए धर्म की आवश्यकता है । इस सम्बन्ध में एक पाश्चात्य विचारक ने कहा है, कि “A man, without religion, is a horse without a bridle.” इसका अभिप्राय यही है, कि धर्महीन व्यक्ति की स्थिति वही है, जो लगाम - हीन एक घोड़े की होती है । जिस प्रकार लगामहीन घोड़ा खतरनाक होता है, उसी प्रकार धर्महीन व्यक्ति भी दूसरे के जीवन के लिए भयंकर सिद्ध होता है । दूसरे के जीवन के लिए ही नहीं, बल्कि स्वयं अपने जीवन के लिए भी वह एक भयंकर अभिशाप ही बन जाता है । भारतीय संस्कृति में धर्मयुक्त धन को बुरा नहीं कहा गया है, किन्तु धर्म - हीन धन को अवश्य ही जीवन-विनाशक माना गया है । धर्म के साथ आने वाला और धर्म के साथ ही जाने वाला धन जीवन को विकृत नहीं कर सकेगा । इसलिए धन की आसक्ति के विकल्प को तोड़ने के लिए न्यायनीति तथा उपकार आदि धर्म की साधना का विकल्प परमावश्यक माना गया है । अशुभ विकल्प को दूर करने के लिए शुभ विकल्प अच्छा है, किन्तु निर्विकल्प अवस्था उससे भी बढ़कर है । मैं आपसे मोक्ष की बात कह रहा था । मोक्ष के स्वरूप के सम्बन्ध में मैंने आपको संक्षेप में कुछ बताया भी है । वास्तव में बात यह है, कि मोक्ष के वास्तविक स्वरूप को शब्दों में व्यक्त करना सम्भव नहीं है । वह तो एक अनुभव का विषय है । फिर भी दर्शन की भाषा में कहा जाए, तो आत्मा का अपना मूल शुद्ध स्वरूप ही मोक्ष है । और जो अपना स्वरूप है, कभी नष्ट नहीं हो सकता, वह सदा त्रिकालाबाधित होता है । आवरण के नीचे गुप्त रहना, अलग चीज है । और सर्वथा अभाव का भाव होना अलग वस्तु है । अभाव का भाव न कभी हुआ है, और न कभी होगा । इसीलिए मैंने कहा था, मुक्ति का प्राप्त होना क्या, अनादि से स्वयं सिद्ध अपने स्वरूप को प्रकट करना ही मुक्ति है । वह स्वरूप अब भी है, किन्तु अज्ञात है, और जो ऐश्वर्य एवं वैभव अज्ञात है, उसके होते हुए भी मनुष्य कंगाल है । मुझे यहाँ पर एक घटना का स्मरण हो आया है । एक सेठ था, वह बहुत बड़ा धनी था । उसके घर में लक्ष्मी का मनचाहा आवास ६२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001344
Book TitleSamaj aur Sanskruti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1994
Total Pages266
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Culture
File Size15 MB
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