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विकल्प से विमुक्ति
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भौतिक पदार्थ नहीं है, जिसकी भीख मांगी जा सके । स्व स्वरूप का अनुसंधान ही मुक्ति की साधना है और स्व स्वरूप की उपलब्धि ही अर्थात् साक्षात्कार ही वस्तुतः मुक्ति है । स्वरूप को प्राप्त नहीं करना है, बल्कि अव्यक्त से व्यक्त करना है, प्रकट करना है । कल्पना कीजिए किसी के घर के आँगन में अखूट खजाना गड़ा हो, किन्तु उसके ज्ञान के अभाव में वह दरिद्र और कंगाल बना रहता है, पर जैसे ही उसे यह बोध हो जाए कि मेरे घर के आँगन में अखूट निधि गड़ी है, तब वह अपने आपको दरिद्र और कंगाल समझने की भूल नहीं कर सकता । यही बात आत्मा के सम्बन्ध में भी है । मिथ्यात्व के कारण आत्मा के अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन और अनन्त सुख एवं अनन्त शक्ति का परिबोध नहीं होने पाता । पर जैसे ही मिथ्यात्व का विकल्प दूर होता है, वैसे ही आत्मा अपने आपको दरिद्र और भिखारी समझने की भूल छोड़ देता है । आत्मा अनन्त गुणों का एक महासागर है, उसमें अनन्त निधि है, उस अनन्त निधि को पाने का हमारा सहज स्वभाव है । बस, इस सहज भाव को ही हमें प्रकट करना है । उत्पन्न नहीं करना है, बल्कि प्रकट करना है । सहज भाव का प्रकट हो जाना ही, मिथ्यात्व रूप विकल्प का टूट जाना और नष्ट हो जाना है । ____ मैं आपसे कह रहा था कि साधना प्रारम्भ करने से पहले साधना में आने वाले विकल्पों के विघ्नों को दूर कर देना चाहिए । कल्पना कीजिए कि धन भी एक विकल्प है और पुण्यरूप धर्म भी एक विकल्प है । धर्म विकल्प है इसका अर्थ केवल इतना ही समझिए, कि जो कुछ जीवन में अमुक अपेक्षा के साथ जप और तप, दया, दान आदि किया जाता है, वह व्यवहार धर्म है, एक पुण्य विकल्प है, किन्तु अशुभ नहीं, शुभ विकल्प है । धन के अशुभ विकल्प को तोड़ने के लिए तप एवं दान रूप शुभ विकल्प की आवश्यकता है । धन का विकल्प धर्म से ही तोड़ा जा सकता है । जिस व्यक्ति के जीवन में धन ही धन का विकल्प रहता है, वह धन के पीछे पागल हो जाता है । धन उसके जीवन में साधन नहीं रहता, बल्कि साध्य बन जाता है और साधन का साध्य बन जाना ही सबसे बुरी बात है । धन पर नियंत्रण करने के लिए, धर्म की आवश्यकता है । कल्पना कीजिए, किसी के पास सुन्दर कार हो, किन्तु उसमें ब्रेक न हो, तब वह कार किस काम की होती है ? ब्रेकहीन कार में सदा खतरा ही बना रहता है । इसी प्रकार किसी के पास सुन्दर अश्व हो, किन्तु
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