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समाज और संस्कृति
था, अध्यात्म साधना को था, त्याग और वैराग्य को था । भारतीय संस्कृति में त्याग के चरणों में वैभव ने सदा नमस्कार किया है । आचार की पवित्रता के समक्ष वैभव और विलास ने सदा अपने आपको झुकाया है । सच तो यह है, कि जिस समय राजा श्रेणिक सन्तों के चरणों में नमस्कार कर रहे थे, उस समय उन्हें यह भान ही नहीं था, कि मैं अपने पुत्रों को नमस्कार कर रहा हूँ, अथवा अपने सगे सम्बन्धियों एवं सेवकों को नमस्कार कर रहा हूँ । उस समय राजा श्रेणिक के मन में एक ही संकल्प था, कि मैं साधुत्व भाव को नमस्कार कर रहा हूँ, मैं त्याग और वैराग्य को वन्दन कर रहा हूँ । __ श्रेणिक ने आज पहली बार सन्तों को हार्दिक भाव से वन्दन किया था । वन्दन करते समय उसके मन में अपार हर्ष था और वह सोचता था, कि आज मैंने अपने कर्त्तव्य को पूरा किया है । किसी भी क्रिया में जब मन का योग मिल जाता है, तब वह फलवती एवं अर्थवती बन जाती है । श्रेणिक के मन में जो हर्ष और उल्लास था, वह उसके मुख पर अभिव्यक्त हो रहा था । परिश्रान्त हो जाने पर भी वह प्रसन्न भाव से वन्दन करता रहा । शरीर में थकावट भले ही आ गई थी, किन्तु उसके मन में अभी भी स्फूर्ति विद्यमान थी । राजा श्रेणिक जिन साधुओं को वन्दन कर रहा था, उनमें कुछ साधु ऐसे भी थे, जो अपनी दीक्षा से पूर्व राजा श्रेणिक के यहाँ निम्न कोटि के दास एवं अनुचर थे । कुछ महलों में झाड़न लगाते रहे होंगे, कुछ हाथियों और घोड़ों की परिचर्या करते रहे होंगे । कुछ छत्रवाहक रहे होंगे । तो कुछ चमर दुलाते होंगे । परन्तु त्याग की दृष्टि से आज राजा श्रेणिक उन्हीं को मस्तक झुका रहा था । श्रेणिक के मन में यह अहंकार नहीं आया, कि यह कभी मेरे दास थे और मैं इनका स्वामी था । श्रेणिक ने सबको मस्तक झुकाकर करबद्ध विधिवत् वन्दना की । उसके मन का सारा अहंकार गल गया था । श्रेणिक ने बहुत से सन्तों को वन्दन कर लिया था, कुछ सन्त अभी भी शेष रह गये थे, जिन्हें वह वन्दन नहीं कर पाया था । आखिर परिश्रान्त होकर श्रेणिक वापिस लौट आया, भगवान् के चरणों में । आज श्रेणिक को इस स्थिति में देखकर गणधर गौतम ने प्रश्न किया-"भगवन् । राजा श्रेणिक के मुख-मण्डल पर आज भक्ति का अपूर्व तेज झलक रहा है, जिस मधुर भाव से आज राजा ने साधुजनों को वन्दन किया है, उसका क्या फल मिलेगा ?" उक्त प्रश्न के उत्तर में भगवान ने कहा-“गौतम ।
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