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अध्यात्म-साधना
आज वन्दन करना चाहिए ? मैं अवश्य ही आज समग्र सन्तों को विधिपूर्वक वन्दन और नमस्कार करूँगा । राजा श्रेणिक के मन की यह भावना असाधारण थी । क्योंकि आज तक ऐसी पवित्र भावना का उदय राजा श्रेणिक के मानस में नहीं हुआ था । आप जानते हैं, कि जब मानवीय मन में कोई नयी तरंग पैदा हो जाती है, तब उसके मन में इतनी विलक्षण जागृति उत्पन्न हो जाती है, कि उसकी विलक्षणता का अंकन संसार की साधारण आत्मा नहीं कर पाती । भाव की लहर और विचार की तरंग जीवन में इतना बड़ा परिवर्तन ला सकती है, कि जिसकी कल्पना करना भी आसान नहीं होता । इतनी बात अवश्य है, कि वह लहर और वह तरंग मन की अतल गहराई से उठनी चाहिए । राजा श्रेणिक ने अपनी भावना के अनुसार समस्त सन्तों को भाव सहित और विधिपूर्वक वन्दन करना प्रारम्भ किया । उल्लास, हर्ष और प्रमोद के साथ वे इस अध्यात्म कार्य को काफी देर तक करते रहे । राजा श्रेणिक के मन में आज एक विलक्षण समरसी भाव आ गया था, आज एक विलक्षण समत्व योग आ गया था ।
वन्दन करते-करते राजा श्रेणिक ऐसे सन्तों के समक्ष जाकर खड़े हो गए, जो भूतकाल में, संसारी अवस्था में उनके पुत्र थे, उनके प्रपौत्र थे अथवा उनके सगे सम्बन्धी थे । बड़ी विचित्र स्थिति थी राजा श्रेणिक के जीवन की वह, जिसमें आज वे तैयार थे, उन साधुओं को वन्दन करने के लिए अथवा उन व्यक्तियों को भी वन्दन करने के लिए जो कभी स्वयं राजा श्रेणिक के चरणों में अपना मस्तक रखते थे, जो कभी राजा के दास थे और चरण सेवक थे । वास्तव में बात यह है, कि जब मन में अध्यात्म भाव की तरंग उठ खड़ी होती है, उस समय यह नहीं देखा जाता, कि यह मेरा पुत्र है, यह मेरा पौत्र है, यह मेरा सगा सम्बन्धी है अथवा मेरा सेवक है । साधुत्व भाव पुत्रत्व जार रितत्व से बहुत ऊँचा होता है । साधुत्व भाव के समक्ष संसार के किसी भी संस्कार में ठहरने की शक्ति नहीं है । राजा श्रेणिक और वह श्रेणिक, जो मगध का सम्राट है, जिसके चरणों में मगध की कोटि-कोटि जनता नत मस्तक होने में गौरव का अनुभव करती है, आज वही सम्राट अपने भूतकालीन उन्हीं पुत्रों, प्रपौत्रों और सेवकों के चरणों में नमस्कार कर रहे है, जिनका नमस्कार कभी वह स्वयं लेते थे । किन्तु मैंने कहा आपसे, कि साधुत्व भाव के समक्ष अन्य सब भाव नगण्य हैं, उनका अपने आप में कुछ भी मूल्य नहीं है । राजा श्रेणिक का वन्दन और नमस्कार साधुत्व भाव को
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