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________________ स्वभाव और विभाव भौतिक पिण्ड तक ही परिसीमित नहीं है, उसकी सीमा चेतन और परमचेतन तक है । चेतन, केवल बद्ध चेतन रहने के लिए नहीं है, वह अबद्ध एवं परम चेतन बनने के लिए है । प्रत्येक चेतन का यह अधिकार है, कि वह परम चेतन बन जाए । चेतन के परम चेतन बनने में, देश, काल और जाति के बन्धन स्वीकार नहीं किए गये । किसी भी देश का, किसी भी जाति का और किसी भी काल का चेतन अपनी साधना के बल पर परम चेतन बन सकता है । भारतीय संस्कृति का यह एक उदात्त और परम उज्ज्वल सिद्धान्त रहा है । भारतीय तत्व - चिन्तकों ने इस तथ्य को स्वीकार किया है, कि संसारी अवस्था में आत्मा में जो विकार और विकल्प हैं, वे आत्मा के अन्दर के नहीं, बाहर के हैं, आत्मा की दो परिणति हैं, स्वभाव और विभाव । स्वभाव परिणति आत्मा को अन्तर्मुख करती है, मूल स्वरूप की ओर ले जाती है और विभाव परिणति आत्मा को बहिर्मुख बनाती है, बन्धन की ओर ले जाती है । बाह्य परिणति का ही यह सब विकल्प है, प्रपंच है । विभाव परिणति से जो कुछ परिवर्तन होता है, उसे हम निश्चय की भाषा में बाहर का मानते हैं, अन्दर का नहीं । यदि इस बात को जरा और स्पष्ट भाषा में कहें तो यह सब संयोगी भाव है । उदाहरण के रूप में देखिए, आकाश से पानी की बूंद जमीन पर आती है । आकाश की बूँद निर्मल और स्वच्छ है, पर ज्यों ही वह धरती पर पड़ती है, गन्दी हो जाती है । वही बूँद जब सर्प के मुख में चली जाती है, तब भयंकर एवं घातक विष बन जाती है । वही बूँद जब किसी सीप के मुख में जाती है, तब सुन्दर मोती बन जाती है । बात क्या है ? बात यह है, कि वह जल की बूँद अपने आपमें स्वच्छ है, पर जैसा - जैसा वातावरण उसे मिला, वैसी ही वह बनती गई । अच्छा वातावरण मिला तो अच्छी वस्तु बन गई और बुरा वातावरण मिला तो बुरी वस्तु बन गई । सीप के मुँह में जाकर वह मोती और सर्प के मुँह में जाकर वह विष बन गई । भारतीय दर्शन के अनुसार यही स्थिति आत्मा की है । मूल-दृष्टि से आत्मा अपने आपमें विशुद्ध निर्मल और पवित्र है । परन्तु वैभाविक दृष्टि के कारण संयोग से उसमें विकार और विकल्प पैदा हो जाते हैं । वस्तुतः विकार और विकल्प कर्म- संयोग - जन्य और माया - जन्य ही हैं । मूल में आत्मा में न कोई विकल्प है, और न कोई विकृति ही । व्यवहार - नय से देखने पर यह आत्मा हमें अवश्य ही अपवित्र नजर आता Jain Education International For Private & Personal Use Only ३३ www.jainelibrary.org
SR No.001344
Book TitleSamaj aur Sanskruti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1994
Total Pages266
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Culture
File Size15 MB
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