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स्वभाव और विभाव
दर्शन-शास्त्र क्या है ? जीवन और जगत की व्याख्या करने वाला शास्त्र, दर्शन-शास्त्र कहा जाता है । दर्शन का जन्म मानव के मन की कल्पना से प्रसूत नहीं है, बल्कि उसका जन्म मानव-जीवन की वास्तविक परिस्थिति से हुआ है । यह हो सकता है, कि कुछ दर्शन-शास्त्र, जिनका झुकाव बुद्धिवाद की ओर अधिक है, जीवन से दूर प्रतीत होते हैं, किन्तु भारत के सभी दर्शनों के सम्बन्ध में यह नहीं कहा जा सकता । भारत में कुछ दर्शन व्यवहारवादी भी हैं, कुछ समन्वयवादी भी हैं, जिनमें बुद्धि
और व्यवहार का सुन्दर समन्वय किया गया है । जीवन व्यावहारिक होते हुए भी, वह बुद्धिवादी अवश्य है और बुद्धिवादी होकर भी वह व्यवहारवादी अवश्य है । क्योंकि भारत में धर्म और दर्शन को एकान्त भिन्न नहीं माना गया है । भारतीय दर्शन की प्रत्येक शाखा में दर्शन का धर्म के साथ और धर्म का दर्शन के साथ योग बैठाने का प्रयत्न किया गया है । चिन्तन का स्वतन्त्र और असीम होना तो अच्छा है, किन्तु उसकी जड़ मानव-जीवन की धरती के अन्दर रहनी चाहिए । भारतीय दर्शन में जीवन का जगत के साथ और जगत का जीवन के साथ समन्वय स्थापित करने का प्रयत्न किया गया है । भारतीय दर्शन कितना भी अधिक बुद्धिवादी क्यों न हो जाए, किन्तु उसे कहीं-न-कहीं पर श्रद्धावादी अवश्य ही बनना पड़ता है । विशेषतः यह सत्य उन दर्शनों के सम्बन्ध में है, जो अपने आपको आध्यात्मवादी दर्शन कहते हैं । श्रद्धा और तर्क दोनों को आवश्यक मानकर भी, दोनों की सीमा का अंकन किया गया है । सीमाहीन श्रद्धा अन्धी होगी और सीमाहीन तर्क पंगु होगा । पश्चिम के दर्शन में व्यवहार की अपेक्षा बौद्धिक-विलास अधिक है और कल्पना की उड़ान अधिक है । पूर्वी दर्शन में चिन्तन के साथ अनुभव का भी महत्व रहा है । यही कारण है, कि भारतीय चिन्तन की धारा केवल विचार के शून्य लोक में ही विलीन नहीं होती, इसका मंगलमय पथ सदा जीवन का ठोस धरातल हो रहा है । भारतीय दर्शन का मुख्य प्रयोजन मानव-जीवन का अभिसिंचन रहा है । संक्षेप में भारतीय दर्शन का यदि सार कथन करना हो, तो तीन शब्दों में किया जा सकता है-आध्यात्मिक उद्देश्य, व्यावहारिक मार्ग और मंगलमयी प्रगति । मेरे अपने विचार में
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