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समाज और संस्कृति
एक दूसरे पर निर्भर रहता है । न व्यक्ति समाज को छोड़ सकता है और न समाज व्यक्ति को छोड़ सकता है ।
समाज को समझना उतना अधिक दुस्साध्य कार्य नहीं है, जितना किसी व्यक्ति के व्यक्तित्व को समझना । व्यक्ति के व्यक्तित्व को समझने के लिए यह आवश्यक है, कि हम उसकी मनोवैज्ञानिक पृष्ठभूमि को समझने का प्रयत्न करें । मनोविज्ञान के परिशीलन एवं अनुचिन्तन से परिज्ञात होता है, कि व्यक्ति दो प्रकार के होते हैं - अन्तर्मुखी ( Introvert ) और बहिर्मुखी (Estrovert) । अन्तर्मुखी व्यक्ति वह होता है, जो अपने आप में ही केन्द्रित रहता है और बहिर्मुखी व्यक्ति वह होता है, जो परिवार और समाज में घुल मिलकर रहता है । व्यक्ति में यह परिवर्तन कैसे आता है ? इसका आधार है, उस व्यक्ति का व्यक्तित्व । व्यक्तित्व ही व्यक्ति के व्यवहार का समग्र आधार है । यदि किसी व्यक्ति में Oneness अकेलापन है, तो अवश्य ही उसके व्यक्तित्व में अकेलेपन के संस्कार रहे होंगे । बहिर्मुखी व्यक्ति अपने में केन्द्रित न रहकर, वह सभी के साथ घुल-मिल जाता है । किन्तु अन्तर्मुखी व्यक्ति समाज के वातावरण में रहकर भी, समाज से अलग-थलग सा रहता है । व्यक्तित्व का वह पक्ष, जो सामाजिक मान्यताओं से सम्बन्ध रखता है, जिसका सामाजिक जीवन में महत्व है, उसे हम चारित्र की संज्ञा देते हैं । सामाजिक जीवन को सुचारू रूप से चलाने के लिए चारित्र का उच्च होना आवश्यक है । यदि व्यक्ति अपने चारित्र को सुन्दर नहीं बना पाता है, तो उसका समाज में टिककर रहना भी सम्भव नहीं है । व्यक्ति जब दूसरे के साथ किसी भी प्रकार का अच्छा अथवा बुरा व्यवहार करता है, तभी हमें उसके व्यक्तित्व . के सम्बन्ध में परिज्ञान हो पाता है । सामाजिक वातावरण ही व्यक्ति के व्यक्तित्व की कसौटी है ।
मैं आपसे यह कह रहा था, कि व्यक्ति का अपने आप में महत्व अवश्य है, किन्तु वह समाज को तिरस्कृत करके जीवित नहीं रह सकता । यह ठीक है, कि व्यक्तिवाद समाज को व्यक्तियों का समूह मानता है, किन्तु फिर भी व्यक्तिवाद में समाज दब जाता है और व्यक्ति उभर आता है । व्यक्तिवाद के मुख्य सिद्धान्तों में व्यक्तियों की स्वतन्त्रता एक मुख्य प्रश्न है । व्यक्ति के लिए स्वतन्त्रता ही सबसे महान वस्तु है । स्वतन्त्रता के बिना मनुष्य का विकास नहीं हो सकता । राजनीतिक सिद्धान्त के अनुसार राज्य और समाज का निर्माण ही व्यक्तियों की स्वतन्त्रता की
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