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व्यक्ति से समाज और समाज से व्यक्ति
अनेक में रहकर भी एक रहता है । व्यक्ति का व्यक्तित्व पुष्प की सुगन्ध के समान होता है । जिस प्रकार देखने वाले को फूल ही दिखलाई पड़ता है, उसकी सुगन्ध नेत्र - गोचर नहीं होती है, परन्तु प्रत्येक पुष्प की सुगन्ध की अनुभूति अवश्य ही होती है । इसी प्रकार हमें प्रतीति होती है, व्यक्ति की, किन्तु जहाँ व्यक्ति है, वहाँ उसका व्यक्तित्व फूल की सुगन्ध के समान सदा उसमें रहता है । पाश्चात्य विद्वान रिचर ने कहा है—“Individuality everywhere to be spared and respected as the root of everything good.” – “ व्यक्तित्व का सभी जगह रक्षण एवं सम्मान करना चाहिए, क्योंकि यह सभी अच्छाइयों का आधार है ।” व्यक्ति के व्यक्तित्व के सम्बन्ध में बहुत कुछ कहा जा सकता है । किन्तु यहाँ पर केवल इतना ही समझना है, कि व्यक्ति और समाज अलग-अलग होकर नहीं रह सकते ।
समाज और व्यक्ति का परस्पर घनिष्ठ सम्बन्ध है । आजकल विभिन्न विचारकों में व्यक्ति और समाज के सम्बन्ध के प्रश्न को लेकर बड़ा मतभेद खड़ा हो गया है, परन्तु यह बात सब मानते हैं, कि व्यक्ति और समाज में किसी भी प्रकार का अलगाव और विलगाव करना न समाज के हित में है और न स्वयं व्यक्ति के हित में है । वास्तव में समाज की कल्पना व्यक्ति के पहले आती है । क्योंकि व्यक्ति कहते ही हमें यह परिज्ञान हो जाता है, कि यह अवश्य ही किसी न किसी समूह एवं समुदाय से सम्बद्ध होगा । व्यक्ति आते हैं और चले जाते हैं, समाज सदैव रहता है । उसका जीवन व्यक्ति से बहुत अधिक दीर्घकालीन रहता है । समाज ही व्यक्ति को सुसंस्कृत एवं सुसभ्य बनाता है । एक बालक का व्यक्तित्व बहुत कुछ उसके सामाजिक वातावरण पर निर्भर रहता है । वह प्रत्येक बात, फिर भले ही वह अच्छी हो अथवा बुरी, अपने समाज से ही सीखता है । केवल सीखने की शक्ति उसकी अपनी होती है । समाज में ही उसके Ego अहम् का विकास होता है, जिससे वह मनुष्य कहलाता है । समाज का अपना एक निजी संघटन है, वह व्यक्ति पर बहुत तरह से नियन्त्रण रखता है । उसका अपना निजी अस्तित्व है और आकार है । परन्तु दूसरी ओर यह भी सत्य है, कि व्यक्तियों की अनुपस्थिति में समाज का कोई अस्तित्व नहीं रहता । क्योंकि व्यक्तियों से ही समाज बनता है । व्यक्ति समाज को प्रभावित करते हैं । इस प्रकार समाज और व्यक्ति दो स्वतन्त्र प्रतीत होते हुए भी दोनों का अस्तित्व और विकास
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