SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 253
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ समाज और संस्कृति % 3D हाँ, इस तथ्य से इन्कार नहीं किया जा सकता, कि आर्यों के यहाँ आने के बाद और उनके यहाँ स्थापित हो जाने के बाद आर्यों और द्रविड़ों के मिलन, मिश्रण और समन्वय से जिस समवेत-संस्कृति का जन्म हुआ था, वस्तुतः वही भारत की प्राचीनतर संस्कृति और कुछ अर्थ में मूल-संस्कृति भी कही जा सकती है । याद रखिए, हमारी राष्ट्रीय संस्कृति ने धीरे-धीरे बढ़कर अपना वर्तमान आकार ग्रहण किया है, जिसमें भारत के मूल निवासी द्रविड़ों, आर्यों, शक एवं हूणों तथा मुसलमान और ईसाइयों का धीरे-धीरे योग-दान मिलता रहा । यह बात तो सत्य है, कि भारत की प्राचीन संस्कृति में समन्वय करने की तथा नये उपकरणों को पचाकर आत्मसात् करने की अद्भुत योग्यता थी । जब तक इसका यह गुण शेष रहा, तब तक यह संस्कृति जीवित और गतिशील रही, लेकिन बाद में इसकी गतिशीलता, स्थिरता में परिणत हो गई । स्थिरता भी बुरी नहीं थी । पर, वह आगे चलकर रूढ़िवादिता में परिणत हो गई । काफी लम्बे इतिहास के अन्दर, भूगोल ने भारत को जो रूप दिया, उससे वह एक ऐसा विशाल देश बन गया, जिसके दरवाजे बाहर की ओर से बन्द थे । क्योंकि महासागर और महाशैल हिमालय से घिरा होने के कारण बाहर से किसी का इस देश में आना आसान नहीं था । फिर भी जो कुछ लोग साहस करके यहाँ पर आए, वे यहीं के होकर रह गए । उदाहरण के लिए सीथियन और हूण लोग, तथा उनके बाद भारत में आने वाली कुछ अन्य जातियों के लोग. यहाँ आकर राजपूत जाति की शाखाओं में घुल मिल गए और यह दावा करने लगे, कि हम भी प्राचीन भारत की सन्तान हैं । भारत की संस्कृति, जन-जन की संस्कृति रही है और इसीलिए वह सदा से उदार और सहिष्णु रही है । यहाँ पर सबका समादर होता रहा है । जिसे हम भारतीय संस्कृति कहते हैं, वह आदि से अन्त तक न तो आर्यों की रचना है और न केवल द्रविड़ों का प्रयत्न ही है । बल्कि उसके भीतर अनेक जातियों का अंश-दान है । यह संस्कृति रसायन की प्रक्रिया से तैयार हुई है और उसके अन्दर अनेक औषधियों का रस समाहित है । भारत में समन्वय की प्रक्रिया चींटियों की प्रक्रिया नहीं, जो अनाज के कणों को एक स्थान पर एकत्रित कर देती है । इस प्रकार का समन्वय वास्तविक समन्वय नहीं कहा जा सकता । क्योंकि अनेक अनाजों के अनगिनत दाने एक बर्तन में एकत्रित किए जाने पर भी अलग-अलग गिने २४४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001344
Book TitleSamaj aur Sanskruti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1994
Total Pages266
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Culture
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy